Sunday, May 15, 2016

'मतभेद होना चाहिए मनभेद नही'

      
        
      मेरा एक अन्तरंग मित्र और मैं अक्सर इस बात पे घंटों बहस करते हैं कि हमारी सोच बिलकुल भिन्न है फिर भी हम इतने दिनों से साथ कैसे है ?? घंटों की बहस के बाद हर बार निष्कर्ष निकलता है 'मतभेद होना चाहिए मनभेद नही'। सच है अक्सर ऐसा होता हैं कि वैचारिक मतभेद होने पर लोग मनभेद स्वतः पैदा कर व्यक्तिगत संबंधो में भी दूरी बना लेते हैं मतभेद से आशय है विचारो में अंतर होना। भिन्न-भिन्न मतों के साथ लोग न केवल जीवन भर एक साथ रह सकते हैं, काम कर सकते हैं, बल्कि भिन्न-भिन्न मतों और विचारधाराओं के संगम से नई बात,नये विचार समाने आतें है और मनुष्य विकास की ओर बढ़ता है! परन्तु मनभेद अर्थात दिलों में अंतर होने से विनाश की ओर बढ़ता है, मनुष्य-मनुष्य से दूर होने लगता है ! महर्षि तुलसीदास ने भी रामायण में कहा है :
                            जहाँ सुमति तहँ सम्पत्ति नाना,
                            जहाँ कुमति तहँ विपति निधाना 
     मति अर्थात सोच जो एक व्यक्ति के मन में किसी दुसरे व्यक्ति के लिए उपजे हों जहाँ सुमति होगी वहां सुख-सम्पत्ति और विकास की प्राप्ति होती है जहाँ जबकि कुमति विनाश और विपत्ति का कारण बनती है 
        अक्सर लोग मानते हैं कि फला व्यक्ति से मेरी नहीं बन सकती क्यूंकि उसकी सोच-विचारधारा मुझसे बिलकुल भिन्न है ।  वैचारिक सम्बन्ध अलग चीज़ हैं और व्यक्तिगत सम्बन्ध अलग  वैचारिक रूप से तो कर्ण और दुर्योधन भी एकदम विपरीत थे किन्तु फिर भी आज तक दोनों की मित्रता की मिशाल दी जाती हैं नेता जी सुभाष चन्द्र बोस के विचार गाँधी से बिलकुल भी मेल नही खाते थे, फिर भी बोस जी गाँधी को पिता के समान सम्मान देते थे 
         बहुधा मतभेद से हम अज्ञान के कारण मनभेद उत्पन्न कर बैठते है यह मनभेद वास्तव में स्वार्थ का पर्याय है और इसका उदय भी अज्ञान के कारण होता है आवश्यकता इस बात कि है कि हम हर परिस्थिति और कर्म को अलग दृष्टीकोण से भी सोच कर देखें, शायद यहीं से आपको अच्छे-ख़राब का असल भेद ज्ञात होगा मगर किसी भी हाल में मतभेद के कारणों को मनभेद तक ना आने दें,अन्यथा आपकी तमाम क्रियाशीलता एक स्वार्थ, जलन और हीन भावना का रूप ले बैठेगी और आपका विकास मार्ग स्वयं अवरुद्ध हो जायेगा 

Saturday, May 14, 2016

कर्तव्य से अधिकार !


           आन्दोलन का अर्थ होता है अधिकारों की लडाई । माने की अपने  हक़ को पाने  की लड़ाई । परिवर्तनशील होना किसी लोकतान्त्रिक राष्ट्र की प्रकृति है और किसी भी परिवर्तनशील राष्ट्र में हुए बड़े से बड़े परिवर्तनों में आंदोलनों की भूमिका अहम होती है जन-जन का हक़ और स्वतंत्रता ही लोकतंत्र की वैचारिक मजबूती है, जो उस राष्ट्र के लोगों को बिना किसी भय-मोह के एक सूत्र में पिरोये रखने का कार्य करती है। किन्तु अपने खुद के कर्तव्यों को ताख पे रखकर अधिकारों  के लिए आन्दोलन को नित नये रूप में परिभाषित करना आखिर कितना उचित है 
         एक पिता का कर्तव्य है कि अपने बच्चों को बेहतर जीवन, शिक्षा-दिक्षा और भविष्य  प्रदान करे, पिता के यही कर्तव्य उन बच्चों के अधिकार बनते है । अर्थात कर्तव्य से अधिकार होता न कि अधिकार से कर्तव्य अधिकारों की मांग करते हुए आन्दोलनकारी लोकतंत्र की मर्यादाओं को भूल जाते हैं। भूल जातें हैं जिस तरह हम अपने अधिकारों के प्रति राष्ट्र की जिम्मेदारी मानते हैं, हम मानते हैं हमें हमारा हक देना प्रशासन का कर्तव्य है ठीक उसी तरह हमारे अपने भी कुछ कर्तव्य बनते हैं जो किसी न किसी व्यक्ति के अधिकारों के प्रति हमें उत्तरदायी बनाते है
          आन्दोलन के नाम पर सार्वजनिक सम्पत्तियों को खुले आम आग लिया जाता है । कभी विश्वविद्यालय की सार्वजनिक सम्पत्तियों, सरकारी बसों, कार्यलयों को छात्र अपने हक़ की मांग के नाम पर नुकसान पहुचाते हैं तो कभी समुदाय विशेष आरक्षण के लिए रेलगाड़ियों को आग के हवाले कर देतें है । कभी निर्दोष लोगों की परेशानियों की परवाह किये बिना घंटों तक सडक,रेल यातायात को रोक रक्खा जाता । आन्दोलन के नाप पर अपनी बात  मनवाने के लिए जिस तरह से सार्वजनिक सम्पत्तियोँ और हितो को नुकसान पहुचाया है वो अधिकार की लड़ाई कतई नहीँ हो सकती । अरे भई प्रत्येक अधिकार के लिए उसके अनुरूप एक कर्तव्य भी होता है ।
        गाँधी जी ने मानव अधिकारोँ के सन्दर्भ मे कहा है " अधिकार का श्रोत कर्तव्य है । यदि हम सब अपने कर्तव्योँ का पालन करेँ तो अधिकारोँ को खोजने हमेँ दूर नही जाना पड़ेगा । यदि अपने कर्तव्योँ को पूरा करे बगैर हम अधिकारोँ के पुछे भागेँगे तो वह छलावे की तरह हमसे दूर रहेँगे, जितना हम उनका पीछा करेँगे वह उतनी ही दूर उडते जाएंगे । मैने अपनी निरक्षर किन्तु बुद्धिमान मां से सीखा कि जिन अधिकारे के हम पात्र होना चाहते हैँ तथा जिन्हेँ हम सुरक्षित कराना चाहते हैँ , वे सभी अच्छी तरह निभाए गए कर्तव्य से प्राप्त होते है । अत: जिवित रहने का अधिकार भी हमेँ तभी प्राप्त होता है जब हम विश्व की नागरिकता के कर्तव्य को पूरा करते हैँ। प्रत्येक अन्य अधिकार को अनुचित रीति से स्थापित अधिकार सिद्ध किया जा सकता है और उसके बारे मेँ विवाद करने का कोई लाभ नहीँ है ।"    (हमारा संविधान- सुभाष कश्यप पृष्ठ संख्या 133)
        गाँधी जी को भय था की हिंसा और युद्ध के जरिये यदि हम आज़ादी पा भी जायेंगे तो हमारा समाज हर हक़ लिए हिंसा और युद्ध का रास्ता ही अपनाएगा इसीलिए उन्होंने अहिंसा का मार्ग चुना 
। गांधियन स्वतंत्रता संग्राम महज एक संघर्ष नही था यह पूरी दुनिया के लिए सीख थी कि अधिकार पाने का एक बेहतर मार्ग यह भी है 

Saturday, May 7, 2016

मां की ममता

अम्मां तो अभी भी वैसी ही है शायद उनके गुड्डू को ही जरूरतों ने बदल डाला है। पुराने दिनों की याद में डायरी के पन्ने पलटते हुए आज ही के दिन २०१० से अम्मां की कुछ याद यहां आप लोगों के लिए ले आया हूँ 
           

         अबकी बार जब घर से लौट रहा था तो घर पर अम्मां नहीं थीं।अम्मां मामा की लडकी की शादी में उनके घर गई थीं। हालांकि महीनों बाद कुछ दिनों के लिए घर जाना और कई महीनों के लिए फिर वापस लौट आने की जब बारी आती है तो हर कोई भावुक हो जाता है। सालों तक हमारे नखरे सहने वाले माता-पिता, जिस घर की दीवारों में आपकी सांसें बसती हों, जो परिवार आपके पीछे साए की तरह खड़ा रहता हो, उसे छोड़ कर जाना वाकई आसान काम नहीं है। घर से विदा लेने की इस नाजुक घड़ी में भावुकता कई बार तो आंसुओं के रूप में भी बाहर आ जाती है। 
            हर बार की तरह मैंने फिर हंसते हुए घर से कुछ यों विदा ली, मानो पास के नुक्कड़ तक जाकर वापस आना हो। परिवार का हर सदस्य घर की चौखट पर से मुझे विदाई दे रहा था। इस बीच मैं जरा भी भावुक नहीं दिखा या फिर भावुक न होने का नाटक कर रहा था। उन सबके मुस्कराते चेहरे मुझमें घर से दूर रहने की इच्छाशक्ति भर रहे थे। अहिस्ता-अहिस्ता मेरे और उनके बीच फासला बढ़ता जा रहा था। आंखों के सामने सब धुंधला पड़ने लगा था। मगर मेरी आंखें कुछ खोज रही थीं। शायद वह अम्मां थीं, जिन्हें मैं खोज रहा था। मां के बिना चौखट सूनी लग रही थी। उन सबसे रुखसत होते हुए मैं दोबारा पलट कर देखने की हिम्मत नहीं जुटा सका। अंदर भावनाओं ने उथल-पुथल मचा रखी थी, लेकिन मैं मुस्कराते हुए विदा हो रहा था, अगले कुछ महीनों के लिए।
           पूरे सफर के दौरान अम्मां और उसके हाथ की आलू की पुड़ियाँ याद आती रही। अमूमन मैं घर से खाने-पीने की चीजें अपने साथ नहीं ले आता। शायद इसलिए कि बाहर रहते हुए वह मेरी कमजोरी न बन जाए। काफी ना-नुकुर के बाद आखिर मैं मां से हार ही जाता था। ठीक वैसे जैसे हर सुबह एक लिटर वाले ग्लास में जबरन मुझे गाय का कच्चा दूध पीना पड़ता था भले ही बाद में लूज मोशन क्यूँ न हो जाये  पिछली बार करीब दस दिन  गांव रहा। वापस लौटते वक्त अम्मां ने चोरी-छिपे मेरे बैग में घर की बनी बेसन के लड्डू रख दी थी। यह शायद मां की ममता ही है, जो शून्य में भी संभावनाएं तलाश लेती है।
          मुझे याद है कि उस बार जब मैं लौटा था तो लड्डू के हर एक टुकड़े के साथ खूब रोया था। शायद ये वही आंसू थे, जो हर बार घर से विदा होने के वक्त मैंने अपनी छाती में दफ्न कर रखे थे। लड्डू का अंतिम टुकड़ा खत्म होने तक यह सिलसिला जारी रहा। उसे याद कर आज भी आंसू निकल आते हैं।
          इस बार भी गांव में करीब दस दिन बिताने के बाद जब लौट कर इलाहाबाद पहुंचा तो बिना देर किए पूरा बैग पलट डाला। हालांकि मैं यह जानता था कि बैग में कपड़ों के अलावा कुछ और नहीं है। हर बार की तरह इस बार भी मैंने घर के सदस्यों के तमाम आग्रह के बावजूद कुछ भी साथ ले जाने से इनकार कर दिया था। इस बार घर में जोर-जबरदस्ती करने वाली मां नहीं थीं। लेकिन यह शायद मां की ममता ही थी, जिसने मुझे बैग खंगालने को मजबूर कर दिया। इसके बावजूद मैं न जाने किस उम्मीद में कपड़ों की तह खोलते हुए उसमें कुछ खोज रहा था कि अचानक फिर से मां के हाथ की बनी बेसन के लड्डू याद आ गये। बस फर्क यह था कि इस बार मेरे हाथ में लड्डू की जगह कपड़े थे, जिन्हें हाथ में लेकर मैं बिना रुके रोए जा रहा था!

Sunday, May 1, 2016

हालात-ए-मजदूर

सियासतें कर रही हैं चर्चाएँ
एसी में बैठकर...
हालात-ए-मजदूर
मजदूर दिवस पर!

एसी खींचकर
ले जा रहे थे दो मजदूर...
बुझे हुए चेहरे,
थे पसीने से तरबतर!

बनाते हैं शीशमहल
रहते हैं झुग्गी-झोपड़ियों में...
बस तकदीर की रेखायें नही,
इन हाथों में है हुनर!

दो जून की रोटी
और तन ढकने के कपड़े...
कहते है मजदूर
उम्मीद न और कर!

ये जिंदगियां ऐसी ही हैं 'शब्दभेदी'
करते हैं अधिकतर, पाते हैं कमतर !