Saturday, May 7, 2016

मां की ममता

अम्मां तो अभी भी वैसी ही है शायद उनके गुड्डू को ही जरूरतों ने बदल डाला है। पुराने दिनों की याद में डायरी के पन्ने पलटते हुए आज ही के दिन २०१० से अम्मां की कुछ याद यहां आप लोगों के लिए ले आया हूँ 
           

         अबकी बार जब घर से लौट रहा था तो घर पर अम्मां नहीं थीं।अम्मां मामा की लडकी की शादी में उनके घर गई थीं। हालांकि महीनों बाद कुछ दिनों के लिए घर जाना और कई महीनों के लिए फिर वापस लौट आने की जब बारी आती है तो हर कोई भावुक हो जाता है। सालों तक हमारे नखरे सहने वाले माता-पिता, जिस घर की दीवारों में आपकी सांसें बसती हों, जो परिवार आपके पीछे साए की तरह खड़ा रहता हो, उसे छोड़ कर जाना वाकई आसान काम नहीं है। घर से विदा लेने की इस नाजुक घड़ी में भावुकता कई बार तो आंसुओं के रूप में भी बाहर आ जाती है। 
            हर बार की तरह मैंने फिर हंसते हुए घर से कुछ यों विदा ली, मानो पास के नुक्कड़ तक जाकर वापस आना हो। परिवार का हर सदस्य घर की चौखट पर से मुझे विदाई दे रहा था। इस बीच मैं जरा भी भावुक नहीं दिखा या फिर भावुक न होने का नाटक कर रहा था। उन सबके मुस्कराते चेहरे मुझमें घर से दूर रहने की इच्छाशक्ति भर रहे थे। अहिस्ता-अहिस्ता मेरे और उनके बीच फासला बढ़ता जा रहा था। आंखों के सामने सब धुंधला पड़ने लगा था। मगर मेरी आंखें कुछ खोज रही थीं। शायद वह अम्मां थीं, जिन्हें मैं खोज रहा था। मां के बिना चौखट सूनी लग रही थी। उन सबसे रुखसत होते हुए मैं दोबारा पलट कर देखने की हिम्मत नहीं जुटा सका। अंदर भावनाओं ने उथल-पुथल मचा रखी थी, लेकिन मैं मुस्कराते हुए विदा हो रहा था, अगले कुछ महीनों के लिए।
           पूरे सफर के दौरान अम्मां और उसके हाथ की आलू की पुड़ियाँ याद आती रही। अमूमन मैं घर से खाने-पीने की चीजें अपने साथ नहीं ले आता। शायद इसलिए कि बाहर रहते हुए वह मेरी कमजोरी न बन जाए। काफी ना-नुकुर के बाद आखिर मैं मां से हार ही जाता था। ठीक वैसे जैसे हर सुबह एक लिटर वाले ग्लास में जबरन मुझे गाय का कच्चा दूध पीना पड़ता था भले ही बाद में लूज मोशन क्यूँ न हो जाये  पिछली बार करीब दस दिन  गांव रहा। वापस लौटते वक्त अम्मां ने चोरी-छिपे मेरे बैग में घर की बनी बेसन के लड्डू रख दी थी। यह शायद मां की ममता ही है, जो शून्य में भी संभावनाएं तलाश लेती है।
          मुझे याद है कि उस बार जब मैं लौटा था तो लड्डू के हर एक टुकड़े के साथ खूब रोया था। शायद ये वही आंसू थे, जो हर बार घर से विदा होने के वक्त मैंने अपनी छाती में दफ्न कर रखे थे। लड्डू का अंतिम टुकड़ा खत्म होने तक यह सिलसिला जारी रहा। उसे याद कर आज भी आंसू निकल आते हैं।
          इस बार भी गांव में करीब दस दिन बिताने के बाद जब लौट कर इलाहाबाद पहुंचा तो बिना देर किए पूरा बैग पलट डाला। हालांकि मैं यह जानता था कि बैग में कपड़ों के अलावा कुछ और नहीं है। हर बार की तरह इस बार भी मैंने घर के सदस्यों के तमाम आग्रह के बावजूद कुछ भी साथ ले जाने से इनकार कर दिया था। इस बार घर में जोर-जबरदस्ती करने वाली मां नहीं थीं। लेकिन यह शायद मां की ममता ही थी, जिसने मुझे बैग खंगालने को मजबूर कर दिया। इसके बावजूद मैं न जाने किस उम्मीद में कपड़ों की तह खोलते हुए उसमें कुछ खोज रहा था कि अचानक फिर से मां के हाथ की बनी बेसन के लड्डू याद आ गये। बस फर्क यह था कि इस बार मेरे हाथ में लड्डू की जगह कपड़े थे, जिन्हें हाथ में लेकर मैं बिना रुके रोए जा रहा था!

2 comments:

  1. amma ko pranam aur guddu ko dher sara pyar :)

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  2. वाह भाई वाह
    यह शायद मां की ममता ही है, जो शून्य में भी संभावनाएं तलाश लेती है।

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