मैं व्यक्तिगत तौर पर छात्रसंघ और छात्रसंघ चुनाव से इत्तेफ़ाक़ नहीं रखता . कम से कम छात्रसंघ के ऐसे प्रारूप से तो बिलकुल नही जहां एक लोकतान्त्रिक पद को पाने के लिए तमाम गैर लोकतान्त्रिक हथकण्डे आम हो जाते हों . इस वर्ष के चुनाव से बदलाव की कुछ उम्मीदें हैं . मानो विश्वविद्यालय का तथाकथित बौद्धिक वर्ग जग सा गया हो . लगा की उन सभी गैर लोकतान्त्रिक तरीको से हटकर, धनबल-बाहुबल से परे , भैयावाद से अलग एक दीदी जी मैदान में उतर रहीं हैं . मसीहा तो नहीं लेकिन इतना जरूर लगा जैसे भ्रष्ट राजनीती के सागर में डूब रहे छात्रसंघ को लाइफबोट मिल गया हो .
बीते चुनावों में मुह बिचकाकर पल्ला झाड़ने वाले भी इस बयार में रूचि दिखा रहें हैं . औरों से भी उनके लेवल पर वोट और सपोर्ट का निवेदन कर रहें हैं . फेसबुक पर धड़ल्ले से पोस्ट की जा रही है . इन में मेरी आपत्ति ये है कि पिछले सत्र के चुनाव और प्रत्याशियों के प्रति मैंने इन्ही मुह बिचकाने वाले बैद्धिकों का रवैया देखा था . अच्छे या बुरे का आकलन किये बगैर एकदम से नकारात्मक रवैये थे इनके . अरे भाई आप तटस्थ भी तो रह सकते थे नकारात्मक ही क्यूँ ? खैर इस सवाल ने मुझे एक निष्कर्ष पर लाकर खड़ा किया . वो यह कि आप इस बार आप सक्रिय हैं , आप दीदी जी के साथ हैं , उनका प्रचार-प्रसार कर रहे/रहीं है इसलिए नहीं की दीदी जी अच्छी इंसान है वो बदलाव लाएंगी , दीदी जी अच्छी अध्यक्ष साबित होंगी बल्कि इसलिए क्योंकि दीदी जी आपकी खास मित्र हैं , वो महिला हैं वगैरह-वगैरह . आप के इन्ही तर्कों ने मुझे धर्मसंकट में डाल दिया . क्या करूँ गत वर्षों की भांति इस बार भी अपने स्तर पर चुनाव से तटस्थ रहूँ या फिर बदलाव का हिस्सा बनकर दीदी जी के लिये वोट करूँ ??
बीते हफ्ते मैं इसी उहापोह में रहा . अब जब सबकुछ दरकिनार कर आगे बढ़ना चाहता था तो मेरे लिये एक और निराश करने वाली खबर आ रही है . कितना सच कितना झूठ नहीं पता ! ' डण्डे-झण्डे एक तरफ , छात्र एजेण्डे एक तरफ ' का नारा लगाने वाले बौद्धिकों ने सपा पैनल की शरण ले ली . कुछेक ने सफाई पेश की कि सिर्फ पैनल का समर्थन रहेगा . ठीक उसी तरह जैसे दिल्ली के जनाधार का अपमान करके केजरीवाल ने कांग्रेस समर्थन से सरकार बनाई वैसे ही दीदी जी का यह कदम सैकड़ों छात्रों की उम्मीदों का अपमान साबित होगा . लाइफबोट डूब जायेगी.... !
बीते चुनावों में मुह बिचकाकर पल्ला झाड़ने वाले भी इस बयार में रूचि दिखा रहें हैं . औरों से भी उनके लेवल पर वोट और सपोर्ट का निवेदन कर रहें हैं . फेसबुक पर धड़ल्ले से पोस्ट की जा रही है . इन में मेरी आपत्ति ये है कि पिछले सत्र के चुनाव और प्रत्याशियों के प्रति मैंने इन्ही मुह बिचकाने वाले बैद्धिकों का रवैया देखा था . अच्छे या बुरे का आकलन किये बगैर एकदम से नकारात्मक रवैये थे इनके . अरे भाई आप तटस्थ भी तो रह सकते थे नकारात्मक ही क्यूँ ? खैर इस सवाल ने मुझे एक निष्कर्ष पर लाकर खड़ा किया . वो यह कि आप इस बार आप सक्रिय हैं , आप दीदी जी के साथ हैं , उनका प्रचार-प्रसार कर रहे/रहीं है इसलिए नहीं की दीदी जी अच्छी इंसान है वो बदलाव लाएंगी , दीदी जी अच्छी अध्यक्ष साबित होंगी बल्कि इसलिए क्योंकि दीदी जी आपकी खास मित्र हैं , वो महिला हैं वगैरह-वगैरह . आप के इन्ही तर्कों ने मुझे धर्मसंकट में डाल दिया . क्या करूँ गत वर्षों की भांति इस बार भी अपने स्तर पर चुनाव से तटस्थ रहूँ या फिर बदलाव का हिस्सा बनकर दीदी जी के लिये वोट करूँ ??
बीते हफ्ते मैं इसी उहापोह में रहा . अब जब सबकुछ दरकिनार कर आगे बढ़ना चाहता था तो मेरे लिये एक और निराश करने वाली खबर आ रही है . कितना सच कितना झूठ नहीं पता ! ' डण्डे-झण्डे एक तरफ , छात्र एजेण्डे एक तरफ ' का नारा लगाने वाले बौद्धिकों ने सपा पैनल की शरण ले ली . कुछेक ने सफाई पेश की कि सिर्फ पैनल का समर्थन रहेगा . ठीक उसी तरह जैसे दिल्ली के जनाधार का अपमान करके केजरीवाल ने कांग्रेस समर्थन से सरकार बनाई वैसे ही दीदी जी का यह कदम सैकड़ों छात्रों की उम्मीदों का अपमान साबित होगा . लाइफबोट डूब जायेगी.... !
इस लाइफबोट का डूबना तय है
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