Sunday, March 20, 2016

तलाश जारी है...

        सिविल लाइन्स की भीड़ भरी सडको को पीछे छोड़ते हुए , अंतर्द्वंद की एक भीड़ अपने मन में लिए, मैं शांत कंपनी बाग़ में प्रवेश किया. बाग़ में आये लोगों के खिले हुए चेहरों में कुछ खोजता हुआ, मन में एक गुबार लिए आगे बढ़ ही रहा था की किसी ने पीछे से आवाज लगाई संजीव... ओय संजीव...! पहली बार तो मैंने नजरअंदाज किया , फिर गौर किया तो पाया,      वो नाम भले ही किसी और का ले रहा था लेकिन बुला मुझे ही रहा था .
    रुक के ध्यान से देखा, अंजान से चेहरे को पहचानने की कोशिश की.. १८ या १९ का रहा होगा , चेहरे पर हल्की-फुलकी झुर्रियां थी. मेरे पीछे देखते ही मुझे अपनी तरफ आने का इशारा किया और खुद भी बड़ी तेजी से बढ़ने लगा ..
उसके मिलने का अंदाज कुछ इस कदर गर्मजोशी भरा था जैसे हमारी वर्षों की पहचान हो .. मुझे समझते देर नही लगी की वो किसी वहम में है...
      " यार कहाँ हो दो साल से ...? परीक्षा के समय हम आखरी बार मिले फिर तो तुम गायब ही हो गये, मैं तुम्हारे हॉस्टल भी गया, पता चला तुम यहाँ नही रहते... भाई कहा थे....? " उसने विस्मय से कहा.
      हम पास ही लगी बेंच पर बैठ गये.
      मैंने जब मुस्कुराते हुए उसे इस बात का एहसास कराया कि जिस मित्र को वो ढूढ़ रहा है वो मैं नही हूँ...
तो शर्मिंदा हुआ और माफ़ी मांगने लगा..
       " ग़लतफ़हमी हुयी माफ़ कीजियेगा, मेरा मित्र बिलकुल आप ही की तरह है , मगर दो साल से हमारी मुलाकात नहीं हुई."
मैं उसकी भावनाओं को समझ रहा था , मैंने सांत्वना दी और जाते-जाते चाय ऑफर कर दी ..
वो सॉरी बोलता हुआ उठा और विपरीत जाने लगा..
         इस सर्द शाम में ठण्ड पड़ी उस लोहे की बेंच पर मैं स्तब्ध बैठा रहा और सोचता रहा ' अपने तमाम गुबार को तो मैं सम्हाल नही पा रहा हूँ और उसे सांत्वना दिए जा रहा था..'
         खैर... वो मुझमे अपने किसी मित्र को तलाश रहा था जिसे वो वर्षों से जानता है , मगर मैं उसमे खुद को देख रहा था जो किसी ऐसे मित्र की तलाश में हूँ जिसे मैं जनता तक नहीं..!

3 comments:

  1. अपना-अपना अकेलापन

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  2. तलाश शायद ही कभी खत्म हो

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