गाँव जब जगता है ,तो सडक किनारे की चाय की गुमटियाँ भी कुल्हड़ के साथ जग जाती हैं। चाय की हरेक चुस्की अपने आप मे तब सार्थक साबित होने लगती है जब बांस फल्ली की बनी बेंच पे बइठे-बइठे कुल्हड़ खाली करने तक आपको पुरे गाँव की खबर मिल जाती है । किशोर चचा की गईया बछड़ा बियाई है, अधार दादा का लड़कवा नौकरी पा गया, दिन्नुआ की शादी तय हो गयी, सावन का आज सातवा दिन है, एसउ मलमास बढे, पांचक लगने वाला है और भी बहुत कुछ आसपास के चार गाँव की खबर चंद चुस्कियों में मिल जाती है ।
माटी का यह कुल्हड़ उन हुनरमंद हाथों का उत्पाद होता है जो आज चाईनीज प्लास्टिक के उत्पदों का शिकार हो है।इनकी फिकर न ही चाय बेचने वाले देश के प्रधान सेवक को है और न ही 'लाल सलाम' के व्यापारियों को । खैर
कुल्हड़ की चाय पिते हुए न तो मुझे ये लगता है कि मै देश की अर्थव्यवस्था पर शहीद हो रहा हूँ और न ही ये कि देश में समाजवाद आ रहा हो , बल्कि हर चुस्की के साथ मिट्टी का यह कुल्हड़ मुझे अपनी माटी के साथ जुड़े होने के मेरे संकल्प को और मजबूत करता है।
आम के आम गुठलियों के भी दाम जैसा है गाव की किसी गुमटी पे चाय पीना
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