लोकतंत्र का जिन चार खंभों पर टिका होना माना गया है, उनमें से प्रथम दो, कार्यपालिका और विधायिका जिस गत को हासिल हो रहे हैं और बचाने की जिम्मेदारी जिस मतदाता वर्ग की है, वह इसे लेकर लापरवाह है। इसके चलते शेष दो खंभों से ही उम्मीदें रखी जा सकती हैं।
न्यायपालिका और पत्रकारिता के इन दो खंभों में से पत्रकारिता या कहें कि मीडिया पर ईस्ट इंडिया कंपनी के देशज रूप कॉरपोरेट घराने बहुत चतुराई से न केवल काबिज होते जा रहे हैं, बल्कि पिछले अरसे में उसने मीडिया के बड़े हिस्से की साख को बट्टे-खाते डालना भी शुरू कर दिया है। ऐसे में बकरे की अम्मा बना बाकी मीडिया भी कब तक खैर मनाएगा, कह नहीं सकते। बचे एक न्यायपालिका रूपी खंभे को भी सामर्थ्यवान गिराने जरूर लगे हैं, लेकिन यह अब तक इतना मजबूत है कि ऐसे समय जब अवाम लोकतांत्रिक मूल्यों के प्रति लापरवाह है और शेष तीन खंभे जब तक अपनी असली स्थिति पर न लौट आएं, तब तक यही एक इन मूल्यों को संभाले रख सकता है।
बावजूद इसके न्यायपालिका से संबंधित ऐसी खबरें आ जाती हैं, जिनसे भरोसा डिगने लगता है। दरअसल, न्यायपालिका जिस ओर से सचेष्ट नजर नहीं आती, इनमें न्याय की जरूरत है। लेटलतीफी में गवाहों पर क्या गुजरती है, उसे हर सामान्य जागरूक व्यक्ति समझता है। गवाहों का भावनात्मक भयादोहन, प्रलोभनों और धमकियों से उन्हें डिगाने की कोशिश होती है। प्रशासन भी ऐसे मामलों में आमतौर पर सक्रियता नहीं दिखाता और न्यायपालिका की सापेक्षता न्यायालय कक्ष के बाहर झांकती भी नहीं। ऐसे में आरोपी पक्ष की ओर से मुकदमे को लंबा खींचने की जुगत तब तक जारी रखी जाती है, जब तक या तो गवाह का कोई ताबीज न बन जाए या फिर फरियादी की उम्मीद न खत्म हो जाए।
पिछले एक-दो वर्षों में गवाहों का इंतजाम जिस तरह किया जाने लगा है, वह विचलित करने वाला है। इसे दो मामलों से समझा जा सकता है। पहला, मध्यप्रदेश का व्यावसायिक परीक्षा मंडल यानी व्यापमं से संबंधित महाघोटाला और दूसरे धर्मगुरु बने प्रवचनकार आसाराम का।
व्यापमं घोटाले में प्रभावशाली लोग दांव पर हैं। उन्होंने धन और अपने निकटजनों को धंधे में लगाने के वास्ते जो खुला खेल खेला, वह बेरोजगारों और विद्यार्थियों के लिए आजादी के बाद का सबसे निराशाजनक मामला है। इस घोटाले का खेल जब खुला तो उसमें सरकार में काबिजों का अपने और अपनों को बचाने के चक्कर में जिन-जिन लोगों के कारण फंसने की गुंजाइश बनी, वे सब संदिग्ध मौतों के हवाले होने लगे। इस पर मध्यप्रदेश के उच्च न्यायालय की निरपेक्षता, न्याय-व्यवस्था से भरोसा उठने की गुंजाइश बनी। वह तो कुछ लोग उच्चतम न्यायालय पहुंच गए और उसने हस्तक्षेप कर व्यापमं घोटाले को उजागर करने में लगे लोगों का भरोसा बढ़ाया है।
ऐसा ही मामला किशोरी से दुष्कर्म सहित कई अन्य ऐसे ही आरोपों में फंसे आसाराम-नारायण, बाप-बेटे का है। इनके पास दोहरी ताकत है- धन की और भोले भक्तों की भीड़ की भी। ये लोग जेल से बाहर आने के लिए हर करतूत को आजमा रहे हैं। इस केस में कई गवाह मारे जा चुके हैं और कई मुकर चुके हैं। क्या न्यायपालिका ऐसी घटनाओं को रुकवाने में सक्रियता नहीं दिखा सकती? जो अदालतें ओमप्रकाश चौटाला, लालू प्रसाद यादव, कलमाड़ी, कनिमोड़ी, ए राजा आदि को सींखचों में रख सकती हैं, वे शासन-प्रशासन को भी पाबंद कर सकती हैं कि वह ऐसे गवाहों और मामला उठाने वालों को पर्याप्त सुरक्षा दे। ऐसे मामलों को निबटाने में खुद न्यायालय को भी तत्परता दिखानी चाहिए।
न्यायपालिका और पत्रकारिता के इन दो खंभों में से पत्रकारिता या कहें कि मीडिया पर ईस्ट इंडिया कंपनी के देशज रूप कॉरपोरेट घराने बहुत चतुराई से न केवल काबिज होते जा रहे हैं, बल्कि पिछले अरसे में उसने मीडिया के बड़े हिस्से की साख को बट्टे-खाते डालना भी शुरू कर दिया है। ऐसे में बकरे की अम्मा बना बाकी मीडिया भी कब तक खैर मनाएगा, कह नहीं सकते। बचे एक न्यायपालिका रूपी खंभे को भी सामर्थ्यवान गिराने जरूर लगे हैं, लेकिन यह अब तक इतना मजबूत है कि ऐसे समय जब अवाम लोकतांत्रिक मूल्यों के प्रति लापरवाह है और शेष तीन खंभे जब तक अपनी असली स्थिति पर न लौट आएं, तब तक यही एक इन मूल्यों को संभाले रख सकता है।
बावजूद इसके न्यायपालिका से संबंधित ऐसी खबरें आ जाती हैं, जिनसे भरोसा डिगने लगता है। दरअसल, न्यायपालिका जिस ओर से सचेष्ट नजर नहीं आती, इनमें न्याय की जरूरत है। लेटलतीफी में गवाहों पर क्या गुजरती है, उसे हर सामान्य जागरूक व्यक्ति समझता है। गवाहों का भावनात्मक भयादोहन, प्रलोभनों और धमकियों से उन्हें डिगाने की कोशिश होती है। प्रशासन भी ऐसे मामलों में आमतौर पर सक्रियता नहीं दिखाता और न्यायपालिका की सापेक्षता न्यायालय कक्ष के बाहर झांकती भी नहीं। ऐसे में आरोपी पक्ष की ओर से मुकदमे को लंबा खींचने की जुगत तब तक जारी रखी जाती है, जब तक या तो गवाह का कोई ताबीज न बन जाए या फिर फरियादी की उम्मीद न खत्म हो जाए।
पिछले एक-दो वर्षों में गवाहों का इंतजाम जिस तरह किया जाने लगा है, वह विचलित करने वाला है। इसे दो मामलों से समझा जा सकता है। पहला, मध्यप्रदेश का व्यावसायिक परीक्षा मंडल यानी व्यापमं से संबंधित महाघोटाला और दूसरे धर्मगुरु बने प्रवचनकार आसाराम का।
व्यापमं घोटाले में प्रभावशाली लोग दांव पर हैं। उन्होंने धन और अपने निकटजनों को धंधे में लगाने के वास्ते जो खुला खेल खेला, वह बेरोजगारों और विद्यार्थियों के लिए आजादी के बाद का सबसे निराशाजनक मामला है। इस घोटाले का खेल जब खुला तो उसमें सरकार में काबिजों का अपने और अपनों को बचाने के चक्कर में जिन-जिन लोगों के कारण फंसने की गुंजाइश बनी, वे सब संदिग्ध मौतों के हवाले होने लगे। इस पर मध्यप्रदेश के उच्च न्यायालय की निरपेक्षता, न्याय-व्यवस्था से भरोसा उठने की गुंजाइश बनी। वह तो कुछ लोग उच्चतम न्यायालय पहुंच गए और उसने हस्तक्षेप कर व्यापमं घोटाले को उजागर करने में लगे लोगों का भरोसा बढ़ाया है।
ऐसा ही मामला किशोरी से दुष्कर्म सहित कई अन्य ऐसे ही आरोपों में फंसे आसाराम-नारायण, बाप-बेटे का है। इनके पास दोहरी ताकत है- धन की और भोले भक्तों की भीड़ की भी। ये लोग जेल से बाहर आने के लिए हर करतूत को आजमा रहे हैं। इस केस में कई गवाह मारे जा चुके हैं और कई मुकर चुके हैं। क्या न्यायपालिका ऐसी घटनाओं को रुकवाने में सक्रियता नहीं दिखा सकती? जो अदालतें ओमप्रकाश चौटाला, लालू प्रसाद यादव, कलमाड़ी, कनिमोड़ी, ए राजा आदि को सींखचों में रख सकती हैं, वे शासन-प्रशासन को भी पाबंद कर सकती हैं कि वह ऐसे गवाहों और मामला उठाने वालों को पर्याप्त सुरक्षा दे। ऐसे मामलों को निबटाने में खुद न्यायालय को भी तत्परता दिखानी चाहिए।
सच है ये चौथी जमात ही चौथा स्तम्भ है
ReplyDelete4th piller ofdemocracy well said bhai
ReplyDeleteजिस चौथी जमात को सबसे को ज्यादा जिम्मेदार होना चाहिए व्ही लाभ उठाने में लगा है
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