Tuesday, April 5, 2016

दिल-ए-नादाँ

यूँ बर्बाद-ए-इश्क़ को जलजला कुछ नहीं होता,

सफर तो होती है मगर मरहला कुछ नहीं होता।


बेवजह सुलझाता हूँ गुत्थियां मैं सारी-सारी रात,
दिल परेशान होता है मसअला कुछ नहीं होता।

पेश करता हूँ दलीलें अपनी ही अदालत में,
बहस तो खूब होती है फैसला कुछ नहीं होता!

हर सुबह कोशिश में लगता हूँ खुदको बदलने की,
कि शब भी आती है मगर बदला कुछ नहीं होता!

जिरह अब किसी से नहीं करता मैं तंगहाली का,
गम अपना गुफ्तगू गैरों से, मिला कुछ नही होता!

अड़ा है जिद पे ये दिल-ए-नादाँ 'मत पलटो'
हर्फ़ उसके नहीं तो पन्ना अगला कुछ नहीं होता!

जिक्र-ए-अतीत में डूबे दिल को कोई समझाये,
खोज-ए-शुकून में ये सिलसिला कुछ नहीं होता!

शब्दभेदी हंस के देखा तो दिखी जहां की रंगीनियां
वरना भीगी पलकों से अच्छा-भला कुछ नहीं होता!

1 comment:

  1. जिरह अब किसी से नहीं करता मैं अपनी तंगहाली का,
    गम अपना गुफ्तगू गैरों से, मिला कुछ नही होता !

    बहुत खूब भाई

    ReplyDelete