Sunday, April 3, 2016

बचालो गांव !

         भारतीय साहित्य और राजनीति की भाषा में गांव अभी भले जीवित हो, महानगरीय पत्रकारिता से गांव-देहात गायब हो चला है। जब कभी हजारों किसान-मजदूर राजधानी में धरना-प्रदर्शन के लिए जाते हैं, तो अखबारों, टेलीविजन चैनलों में खबरें इन लोगों की वजह से प्रभावित होने वाले यातायात की होती है। हमें पता भी नहीं चलता कि इनकी मांगें क्या थी और किन समस्याओं को लेकर ये राजधानी गए थे। ऐसे में गांव और उसके बदलते यथार्थ को विश्वविद्यालयों में होने वाले समाजशास्त्रीय अकादमिक अध्ययनों के लिए छोड़ दिया गया है।
          भारतीय गांव, उसकी बोली-बानी, बदलते जीवन यथार्थ और उसकी समस्याओं को एक जगह समेटने के उद्देश्य से पिछले दिनों पी साईनाथ की पहल से ‘पीपुल्स आर्काइव आॅफ रूरल इंडिया’ नामक एक वेबसाइट शुरू की गई है। इसे उन्होंने हमारे समय का एक जर्नल और साथ ही अभिलेखागार कहा है। इस वेबसाइट पर विचरने वाले एक साथ विषय-वस्तु के उपभोक्ता और उत्पादक दोनों हो सकते हैं। इस पर उपलब्ध सामग्री, फोटो, वीडियो का इस्तेमाल कोई भी मुफ्त में कर सकता है। साथ ही कोई भी इस वेबसाइट के लिए सामग्री मुहैया करा सकता है और इसके लिए पेशेवर पत्रकारीय कौशल की जरूरत नहीं है। इसे चलाने के लिए पी साईनाथ किसी राजनीति या कॉरपोरेट जगत से धन नहीं लेना चाहते, बल्कि आम लोगों के सहयोग की उन्हें दरकार है।
          किसानों के जीवन, उनकी समस्याओं से मीडिया की बेरुखी और जीवनशैली, फैशन, फिल्मी शख्सियतों की जिंदगी में अतिरिक्त रुचि पर व्यंग्य करते हुए पी साईनाथ ने अपने एक लेख में लिखा था- ‘1991-2005 के दौरान लगभग अस्सी लाख किसानों ने खेतीबाड़ी छोड़ दी, लेकिन वे कहां गए इसकी चिंता कोई नहीं करता। कोई व्यवस्थित काम इस सिलसिले में नहीं किया गया है। मीडिया की इसमें कोई रुचि नहीं है। हां, भले ही हम आपको यह बता सकते हैं कि पैरिस हिल्टन कहां हैं!’ पिछले कुछ सालों में भारतीय मीडिया में न सिर्फ खबरें बदली हैं, बल्कि खबरों की नई परिभाषा भी गढ़ी गई है।
        जन्मभूमि और कर्मभूमि आप खुद नहीं चुनते, वह आपको चुनती है। मेरा जन्म सुरत में हुआ और मेरी कर्मभूमि उत्तर प्रदेश का एक छोटा सा गांव है। मेरे लिए गांव एक जीवित यथार्थ है, जहां देश की आबादी के करीब सत्तर फीसद लोग रहते हैं। पर पता नहीं, बीस-तीस साल बाद मेरी अगली पीढ़ी के लिए गांव का मानचित्र कैसा होगा !
        मुझे गांव छोड़े लगभग दस साल हो गए, पर गांव अभी छूटा नहीं है। महीने-दो-महीने में गांव चला ही जाता हूं। जब गांव से शहर की ओर लौटता हूं तो लगता है कि कुछ छूट रहा है। बचपन की कुछ स्मृतियां, सपने, रंग और आबोहवा। जो बचा है, मन उसे तेजी से समेट लेना चाहता है। निस्संदेह मेरे जैसे हजारों लोगों के लिए यह पहल इस गुजरते जीवन की एक सुखद भेंट हैं। पर इस भेंट को आने वाली पीढ़ी के लिए संभालने का जिम्मा भी हम जैसे लोगों पर ही है, जो मुख्यधारा के मीडिया के बरक्स न्यू मीडिया से बदलाव लाने की अपेक्षा पाले बैठे हैं!

1 comment: