हमारे यहां साधारणतया गर्मियों का मौसम विवाह आदि संस्कारों के लिए जाना जाता रहा है। इस समय स्कूलों में छुट्टियां होती हैं, खेती-बाड़ी में राहत होती है और खाली समय पर्याप्त होता है। लेकिन अब समय चक्र तेजी से बदला है। मनुष्य उसके प्रवाह में चाहते और न चाहते हुए भी बह रहा है। गांव सिमट गए और शहरों का क्षेत्रफल बढ़ गया है, मगर दिलों के दायरे सिकुड़ गए हैं। इस पलायन की प्रमुख वजह गांवों की अपेक्षा शहरों में अधिक सुख-सुविधाओं का होना है।
माना जाता है कि संसार भोगमय है। लेकिन इन दिनों जिस तरह के भोग का बोध हो चला है, वह मनुष्य की गरिमा के विरुद्ध और मशीन के करीब है। जो सुविधाभोगी हैं, वे सब कुछ अतिक्रमित करने को आतुर हैं। संवेदना, सहृदयता जैसे मूल मानवीय गुण लुप्त होने के कगार पर हैं। निजी सुख प्रधान हो चुके हैं और इससे बाहर झांकने का दायरा अपने जन्मे बच्चों से आगे नहीं बढ़ पाता। क्या पहले लोग अपने परिवार से मोह नहीं रखते थे? या फिर अब ज्यादा समझदार हो गए हैं?
समाज से अर्जित (कानूनी और गैर-कानूनी) संपदा का दुरुपयोग यह मान कर करना कि वह उसका नैतिक हकदार है, गलत है। दरअसल, आज इस कथित नैतिकता ने अपने पांव तेजी से पसारे हैं। तो इन्हीं फुर्सत के क्षणों में एक शादी समारोह में सतना के पड़ोस के गांव कंचनपुर जाना हुआ। वहां एक पट्टीदार परिवार में बिटिया की शादी में जो प्रबंध किए गए थे, उनका स्तर किसी शहर में किए समारोह से कमतर नहीं था।
खूबसूरत मंच के बगल में सुसज्जित आॅर्केस्ट्रा और उसके सामने वर-वधु के लिए दस फुट ऊंचा घूमने वाला मंच बनाया गया था, जिसमें एक पाइप के जरिए पुष्प-वर्षा के लिए मशीनीकृत प्रबंध था। यानी आशीर्वाद देने के लिए अब संबंधियों और शुभचिंतकों की जगह डीजल चलित एक पंप ने ले ली थी। हालांकि शहरों में भी विवाह कार्यक्रम पूरी तरह नाटकीय हो चुके हैं, जहां मेहमान और मेजबान दोनों हद दरजे की औपचारिकता को पार कर चुके हैं।
टेलीविजन की संस्कृति ने जिस गहराई से अपनी पैठ गांव में बनाई है, वह शहरों को कहीं पीछे छोड़ती दिखती है। लेकिन साधनों और धन के एवज में सलीका नहीं खरीदा जा सकता। इसलिए खाने के अहाते में जूठी और फेंकने वाली प्लेटों का बिखराव कुछ यों था, जैसे पतझड़ के मौसम में पत्ते आसपास की धरती को ढंक लेते हैं और उन पर चलने से कर्र-कुर्र, चर्र-मर्र की आवाज आती है। फिर बच्चे-बुजुर्ग, स्त्री-पुरुष सभी चाउमिन चाट के लिए जूझते दिखे।
पाउच को मुट्ठी में लिए पानी चूसते देख कर याद आया कि गांव में बरातियों का स्वागत कभी किस्म-किस्म के आम चूसने से होता था। अब सब ध्वस्त है। न आम बचे और न सरल स्वभाव के आम लोग। यह देख कर लगता है कि शहरी संस्कृति की बराबरी और आधुनिकता की अंधी दौड़ में गांव अपनी तासीर गंवा के कहीं के नहीं रहे। न तो वे शहर बन सके और न ही गांव बने रह सके। चाहे अधूरा ज्ञान हो या अधकचरी संस्कृति, इससे समाज को कुछ हासिल नहीं होता। मौलिकता में संसार का सबसे अप्रतिम सौंदर्य है।
मौलिकता और सरलता से बड़ा मनुष्य का आभूषण और कुछ नहीं हो सकता। लेकिन दिनोंदिन वस्तुपरक, प्रदर्शनपरक हो रहे समाज में मनुष्य कहां शेष है, यह गंभीरता से सोचने का विषय है। मनुष्य न तो मशीन और न संवेदनहीन हो सकता है। लेकिन ऐसा बनने को वह लालायित दिखता है। शहर तो वैसे भी संबंधों की मिठास से रीते हुए हैं, गांव को भी इसकी जद में आते देख कर पीड़ा होती है। ये बेतरतीब बदलाव हमें कहां ले जाएंगे और यही सोचते हुए मैं पंडाल से बहार आया।
माना जाता है कि संसार भोगमय है। लेकिन इन दिनों जिस तरह के भोग का बोध हो चला है, वह मनुष्य की गरिमा के विरुद्ध और मशीन के करीब है। जो सुविधाभोगी हैं, वे सब कुछ अतिक्रमित करने को आतुर हैं। संवेदना, सहृदयता जैसे मूल मानवीय गुण लुप्त होने के कगार पर हैं। निजी सुख प्रधान हो चुके हैं और इससे बाहर झांकने का दायरा अपने जन्मे बच्चों से आगे नहीं बढ़ पाता। क्या पहले लोग अपने परिवार से मोह नहीं रखते थे? या फिर अब ज्यादा समझदार हो गए हैं?
समाज से अर्जित (कानूनी और गैर-कानूनी) संपदा का दुरुपयोग यह मान कर करना कि वह उसका नैतिक हकदार है, गलत है। दरअसल, आज इस कथित नैतिकता ने अपने पांव तेजी से पसारे हैं। तो इन्हीं फुर्सत के क्षणों में एक शादी समारोह में सतना के पड़ोस के गांव कंचनपुर जाना हुआ। वहां एक पट्टीदार परिवार में बिटिया की शादी में जो प्रबंध किए गए थे, उनका स्तर किसी शहर में किए समारोह से कमतर नहीं था।
खूबसूरत मंच के बगल में सुसज्जित आॅर्केस्ट्रा और उसके सामने वर-वधु के लिए दस फुट ऊंचा घूमने वाला मंच बनाया गया था, जिसमें एक पाइप के जरिए पुष्प-वर्षा के लिए मशीनीकृत प्रबंध था। यानी आशीर्वाद देने के लिए अब संबंधियों और शुभचिंतकों की जगह डीजल चलित एक पंप ने ले ली थी। हालांकि शहरों में भी विवाह कार्यक्रम पूरी तरह नाटकीय हो चुके हैं, जहां मेहमान और मेजबान दोनों हद दरजे की औपचारिकता को पार कर चुके हैं।
टेलीविजन की संस्कृति ने जिस गहराई से अपनी पैठ गांव में बनाई है, वह शहरों को कहीं पीछे छोड़ती दिखती है। लेकिन साधनों और धन के एवज में सलीका नहीं खरीदा जा सकता। इसलिए खाने के अहाते में जूठी और फेंकने वाली प्लेटों का बिखराव कुछ यों था, जैसे पतझड़ के मौसम में पत्ते आसपास की धरती को ढंक लेते हैं और उन पर चलने से कर्र-कुर्र, चर्र-मर्र की आवाज आती है। फिर बच्चे-बुजुर्ग, स्त्री-पुरुष सभी चाउमिन चाट के लिए जूझते दिखे।
पाउच को मुट्ठी में लिए पानी चूसते देख कर याद आया कि गांव में बरातियों का स्वागत कभी किस्म-किस्म के आम चूसने से होता था। अब सब ध्वस्त है। न आम बचे और न सरल स्वभाव के आम लोग। यह देख कर लगता है कि शहरी संस्कृति की बराबरी और आधुनिकता की अंधी दौड़ में गांव अपनी तासीर गंवा के कहीं के नहीं रहे। न तो वे शहर बन सके और न ही गांव बने रह सके। चाहे अधूरा ज्ञान हो या अधकचरी संस्कृति, इससे समाज को कुछ हासिल नहीं होता। मौलिकता में संसार का सबसे अप्रतिम सौंदर्य है।
मौलिकता और सरलता से बड़ा मनुष्य का आभूषण और कुछ नहीं हो सकता। लेकिन दिनोंदिन वस्तुपरक, प्रदर्शनपरक हो रहे समाज में मनुष्य कहां शेष है, यह गंभीरता से सोचने का विषय है। मनुष्य न तो मशीन और न संवेदनहीन हो सकता है। लेकिन ऐसा बनने को वह लालायित दिखता है। शहर तो वैसे भी संबंधों की मिठास से रीते हुए हैं, गांव को भी इसकी जद में आते देख कर पीड़ा होती है। ये बेतरतीब बदलाव हमें कहां ले जाएंगे और यही सोचते हुए मैं पंडाल से बहार आया।
एकदम सही अवलोकन भाई...
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