Monday, March 21, 2016

'शायर गुमनाम'

खुरुच लेने दो दीवारों को
शायद यहीं-कहीं
उसका नाम लिक्खा था ।

बड़ा बेतरतीब हो गया
मेरा कमरा,
यहीं मेज पे तो कहीं
उसका दिया गुलदान रक्खा था ।

इसी खिड़की के पास
जरा गौर से देखो,
एक जोड़ा निगाहों का
वहीं टांग रक्खा था ।

इसी लकड़ी की आलमारी के
ऊपरी दराज में,
फाईलों में बंद, अपनी जिन्दगी का
अंजाम रक्खा था ।

कोशिशें लाख की कि
अपनी किस्मत बदल लूँ
हुआ वही जो खुदा ने
इन्तेजाम लिक्खा था ।

'शब्दभेदी' खो रहा था सबकुछ
इक अंधी दौड़ में,
और लोगों ने उसका नाम
'शायर गुमनाम' रक्खा था ।

1 comment:

  1. ये गुमनाम शायर खूब नाम कमाएगा ये लिख लो कही

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