Thursday, July 6, 2017

इंसान का ईमान (ग़ज़ल)


बेशक दिन-ब-दिन माकान ऊंचे उठता गया,
हां मगर अफसोस कि इंसान नीचे गिरता गया।
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बढ़ रही हो लाख कीमत रुपये की बाजार में,
मुसलसल आदमी का ईमान नीचे गिरता गया।
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जमीन नाप ली हमने तरक्की की बेहिसाब
खुशियों का हमसे आसमान नीचे गिरता गया।
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भले ही चाँद पर रक्खे कदम हो आदमी ने
क्या कहें! उफ्फ ये जहान नीचे गिरता गया।
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ज़िन्दगी का बोझ ढोये ज़िन्दगी भर मगर
वक्त-ए-रुखसत सब सामान नीचे गिरता गया।
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शब्दभेदी

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