Tuesday, March 21, 2017

समांतर

तुम्हारे न होने का ग़म
और मेरी ज़िंदगी की भागदौड़
दोनों समांतर बढ़ रही हैं,
बावजूद तमाम उतार चढ़ाव के!

एक रेखा पर चलते हैं
अफ़सोस, कसक और तन्हाई
जिसमें खुद को पाता हूँ
परेशान हमेशा-हमेशा!

दूसरी ओर अस्त-व्यस्त होकर
बढ़ता जा रहा हूँ आगे अनवरत
इस रेखा पर चलते हैं
चाकरी, वेतन और जीवन यापन!

जैसे नहीं देखा किसी ने समान्यतः
दो समांतर रेखाओं को मिलते
लेकिन कयास है कि शायद
अनन्त में जाकर मिल जाती हों!

वैसे ही नहीं देखा किसी ने समान्यतः
मेरे ग़म और जीवन को मिलते
लेकिन यह भी जाकर मिल जाते हैं
अनन्त यादों के अदृश्य क्षेत्र में!

- शब्दभेदी

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