Monday, March 6, 2017

कैदी मन

कितना अजीब कैदखाना है ये..

लोग सालों कैद में होते हुए अपने मन को कभी अपने गाँव के नुक्कड़ पर चाय पिलाने.. तो कभी खेत में हरे मटर के दाने खिलाने और कभी तालाब के भीटे पर बैठकर दूर डूबते सूरज को दिखाने ले जाते हैं...
तो कभी किसी कैदी का आज़ाद मन अपनी माँ की गोद में शुकून की लम्बी नींद लेकर आता है।
लोगों की देह कैद होती है मन तो आज़ाद घूमता है।

इसके ठीक उलट मेरी देह हर दिन वक्त पे कैदखाने के
कोने में टूटे गुसलखाने में नहा-धोकर, धूसरित आईने में अपनी शकल देख के और बालों को पुरानी गन्दी पड़ी कंघी के थोड़े साफ वाले हिस्से से सवांर कर निकल जाता है कुछ जरूरी दुनियावी काम करने।

लेकिन बेचारा मन...
मन तो इसी कोठरी के कोने में दुबके हुए दूर से ही ताकता रहता है किवाड़ की सांकल को। तभी से जब तुम्हारे एक इशारे पर मुझे मेरी अपनी ही करतूतें फेंक कर चली गयी थी इस कोठरी में।

तब से कई दफे मन झटके से उठकर पीटने लगता था किवाड़ को और बाहर निकलने के लिए तड़फड़ाने लगता था लेकिन धीरे-धीरे मन का सारा जोश-ओ-जुनूँ खत्म हो गया और इसने किवाड़ की तरफ जाना ही छोड़ दिया।

पहले कई दफे मैंने चिल्ला-चिल्लाकर पूछा भी 'मुझे इस कैदखाने में बंद करने की वजह तो बताओ..आखिर मेरा गुनाह क्या है।' जोर-जोर से चिल्लाने से बैठ गया.. मेरा गला भी और गुनाह जानने की ख्वाहिश भी।

अब मन.. बस एक कोने में बैठे हुए हर रोज सुबह के बाद दोपहर, दोपहर के बाद शाम, शाम के बाद रात और फिर रात के बाद अगली सुबह का इंतजार करता रहता है। ऊपर कोने के रोशनदान से कैदी मन को एहसास होता है चारो पहर का।

धीरे-धीरे इतना वक्त बीत गया कि अब वक्त का भी एहसास मुझे नही होता ठीक से.. मन कभी-कभी जब मुझी से पूछता है कितना वक्त हुआ इस दोजख में आये? तो वक्त के सारे आंकड़े गिनकर थक जाने के बाद मैं कह देता हूँ...
'लम्बा अरसा!'

मुझे ठीक से यह भी नहीं याद कि कबसे इसमें बंद पड़ा हूँ।
मैं कैदी हूँ.. तुम्हारी यादों की कालकोठरी का!

- शब्दभेदी

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