Monday, March 27, 2017

रंगमंच

अरसे से उदास चेहरे पे शह पाना चाहता हूँ,
मैं जैसे मुस्कुराता था वैसे मुस्कुराना चाहता हूँ!

राहों की खाक से परे, मिट्टी में मैं खेलूं,
मौज-औ-शुकूँ का वही जमाना चाहता हूँ!

आजमा के देखा मैंने अपनों - परायों को,
किसी हद तक खुदको आजमाना चाहता हूँ!

रंगमंच का खेल था तालियां भी खूब बजी,
वक्त हो चला है अब परदा गिराना चाहता हूँ!
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शब्दभेदी

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