Sunday, April 2, 2017

वक्त-बेवक्त

सूखते जख्म कुरेदना है आदत जमाने की
खैर छोड़िए क्या बताएं रवायत जमाने की!
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वक्त-बेवक्त छेड़ जाता है कोई उसकी बात,
लाख गुजारिश करूं मैं न याद दिलाने की!
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जिरह किसी से नहीं करता अपनी तंगहाली का
भूलने दो ये बातें नहीं है कहने-कहाने की!
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बेहिज दिल भी अपना होकर अपना नहीं है
क्या-क्या न किये जतन इसको बहलाने की!
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शब्दभेदी कोशिशें मुसलसल जारी हैं मगर
मैं दावे नहीं कर सकता सब भूल जाने की!

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