Monday, February 27, 2017

मन-मंथन


मैं और तुम्हारी यादें मिलकर
अक्सर करते हैं 'मन-मंथन'
मेरे 'अंतर्मन के सागर' में
और इसमें निकलतें हैं
तमाम खयाली रत्न!
.
इस मंथन में से निकले
हलाहल और अमिय भी
'अनवरतता का अमिय' पीकर
अमर हो गयीं तुम्हारी यादें
और मेरे हिस्से आया 'दर्द का हलाहल'!
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- शब्दभेदी
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*हलाहल- विष
*अमिय- अमृत

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