Thursday, February 2, 2017

परिंदे का शजर

ड्योढ़ी पे थी अम्मा, बरमदे में थे बाऊ जी
कोई ऐसे कभी अपना घर नहीं छोड़ता।

मजबूर थे वे भी न रोक पाये नहीं तो, अपने
दिल के टुकड़े को कोई दरबदर नही छोड़ता।

घर की जरूरतें ले आई मुझे भी शहर वरना,
शौक से परिंदा भी कभी शजर नहीं छोड़ता।

जिम्मेदारियां साथ हैं बचपना छोड़ आया हूँ,
तुम्हीं बतलाओ इसे मैं क्यूंकर नहीं छोड़ता।

'शब्दभेदी' मुद्दतों बाद आज मैं खुल के रोया हूँ,
दर्द-ए-दिल कुछ भी मुख़्तसर नहीं छोड़ता।

- शब्दभेदी

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