कपार पर जब भी इलेक्शन आता है,
नून-भात मांगो तो पोलाव आता है।
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राजधानी के हेठे जो दिखे न कभ्भी,
नेता जी लोग अब गांव-गांव जाता है।
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मोर, मोरगा अउर काकभुसुंडी हर कोई,
अपना राग गाता है, अपना ही गीत सुनाता है।
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जिसको देखकर कल तक खून जरता था,
उसी को आज 'भइया बिसेसर जी' बुलाता है।
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चिक्कन का कुरता अउर कोबरा का सेंट,
अभी तो गले मिलता है, खूब हाथ मिलाता है।
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मिल गयी कुर्सी तो फिर दिखाई न देगा कभी,
खाली गाड़ी से आते-जाते हाथ हिलाता है।
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कमल, पंजा, सईकिल, हाथी किसकी कहूँ,
शब्दभेदी सभी तो हमको एक ही बुझाता है।
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Sunday, February 19, 2017
इलेक्शन (ठेठ कविता)
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