Wednesday, March 30, 2016

कुल्हड़ की चाय

     
 गाँव जब जगता है ,तो सडक किनारे की चाय की गुमटियाँ भी कुल्हड़‬ के साथ जग जाती हैं। चाय की हरेक चुस्की अपने आप मे तब सार्थक साबित होने लगती है जब बांस फल्ली की बनी बेंच पे बइठे-बइठे कुल्हड़ खाली करने तक आपको पुरे गाँव की खबर मिल जाती है । किशोर चचा की गईया बछड़ा बियाई है, अधार दादा का लड़कवा नौकरी पा गया, दिन्नुआ की शादी तय हो गयी, सावन का आज सातवा दिन है, एसउ मलमास बढे, पांचक लगने वाला है और भी बहुत कुछ आसपास के चार गाँव की खबर चंद चुस्कियों में मिल जाती है ।
      माटी का यह कुल्हड़ उन हुनरमंद हाथों का उत्पाद होता है जो आज चाईनीज प्लास्टिक के उत्पदों का शिकार हो है।इनकी फिकर न ही चाय बेचने वाले देश के प्रधान सेवक को है और न ही 'लाल सलाम' के व्यापारियों को । खैर 
कुल्हड़ की चाय पिते हुए न तो मुझे ये लगता है कि मै देश की अर्थव्यवस्था पर शहीद हो रहा हूँ और न ही ये कि देश में समाजवाद आ रहा हो , बल्कि हर चुस्की के साथ मिट्टी का यह कुल्हड़ मुझे अपनी माटी के साथ जुड़े होने के मेरे संकल्प को और मजबूत करता है।

Tuesday, March 29, 2016

मंडूप चार्जर

       
                एक दिन में तीर्थयात्रा के दौरान काशी से प्रयाग बस में जा रहा था.. कनखोंसनी में नए पुराने गीत सुन रहा था.. एकाएक गाना रुक गया.. मोबाइल के चेहरे की संवेदनशीलता समाप्त हो चुकी थी.. मन की उत्कण्ठा चरम पे चली गयी.. हॉलीवुड से निरहू तक का सफ़र अब अपनी सभी सांसारिक मर्यादाएं लांघ चूका था.. ये कहा जाय कि फोन बेहयाई पे उतर आया था तो अतिश्योक्ति नहीं होगी.. मुझे कुछ जानकार लोगों ने बताया कि समस्या इसके सॉफ्टवेर में है.. तीर्थाटन के उपरान्त मैंने सेवा केंद्र में दिखाने का निश्चय किया.. परंतु तब तक पर्याप्त देर हो चुकी थी.. मैंने कुछ किया भी नहीं और सेवा केंद्र में ले जाने से पहले ही फोन ने मुझे दहेज़ उत्पीड़न के झूठे केस में फंसाने के लिए अपने चेहरे पर व्यापक चीर-फाड़ कर ली थी  
            सेवा केंद्र पहुँचने पर मेरा स्वागत तो कत्तई नही हुआ.. आजकल शिकायत दर्ज कराने थाने पे कम और मोबाइल के सेवा केंद्र में ज्यादा भीड़ लगती है..वहां मुझे एक गुलाबी पर्ची दिखा के मेरी प्रविष्टि रोजनामचा में कर ली गयी.. ऊपर एक टीवी भी लगा था जिसमे एम्टीवी के आध्यात्मिक भजन चालू थे.. टीवी देखने के लिए मुझे मेरी गर्दन इतनी ऊपर करनी पड़ती थी जितनी जिराफ को भोजन खाने के लिए करनी पड़ती है.. दृश्यों को देखकर मेरी गर्दन में तनाव आ गया 
           थोड़ी देर बाद मेरा नंबर डिस्प्ले हुआ.. मुझे बेहद ख़ुशी हुई कि अवश्य ही कोई सलवार सूटसुशीला शोरूम की भाँति मेरे लिए अक्षत चन्दन से थाली सजाये घी का दीप लिए खड़ी होगी.. परंतु समय खराब हो तो सागर में भी सूखी रेत ही नसीब होती है.. एक बेहद सुडौल मरदाना टाइप की कन्या सामने कुर्सी पर विद्यमान थी.. मेरे दुर्लभ संस्कारों की देन थी कि मैं उसका जेंडर डिस्टिंगइश् कर पाया वरना केश तो आजकल लौंडे भी रखते हैं.. निष्कर्षतः शोरूम में विद्यमान कन्याओं और सर्विस सेंटर में विद्यमान कन्याओं के रूप लावण्य में जो भेद होता है वही असल भेदभाव है और आज के बाजार की कड़वी सच्चाई है 
             उसने मुझे बताया कि यद्यपि आपका फोन प्रतिभूति काल में है तथापि इसको लगी चोट ये चीख चीख कर कह रही कि आपने इसका उत्पीड़न किया है.. इसलिए आप इसकी गारंटी का कोई लाभ वरण नही कर सकेंगे.. उसने बताया कि फोन का फोल्डर खराब है.. मैंने उससे मरम्मत का आर्थिक प्राक्कलन करने को कहा तो उसने बताया न्यूनतम 5000 रूपये.. मेरे लिए यह लव एट फर्स्ट साइत का यह पहला दुष्परिणाम नहीं था.. पके कोहड़े सी शकल लिए मैं वापस आ गया.. 
दो महीने बाद मेरे एक सहपाठी ने उसको दो हजार रुपये में ठीक किया.. मरता क्या न करता.. सोशल साइट्स का लती हूँ .. आप के बीच रहना आदत सी हो गयी है.. बनवाया.. चार महीने समझौता एक्सप्रेस चली.. अबकी समस्या चारजिंग में है.. मंडूप चार्जर मंगाया हूँ.. बारह घंटे की चारजिंग पे एक पोस्ट डाल देता हूँ.. सितारे गर्दिश में हैं और सूरज फलक पे.. पर वो सूट सलवार वाली अब दिखती नहीं.. शायद अब वो भी जीन्स टॉप में आ गयी होगी.. हमारा क्या? हमारी चप्पल टूट भी जाती है तो हम फीता बदल देते हैं.. जमीन रहनी चाहिए
             जर्जर हालात में पहुँच चूका मेरा फोन मेरी गरीबी का पर्याय बन चूका है.. मैं खुश हूँ.. लोगों को निरापवाद मोबाइल फ़ोन के नुक्सान के बारे में जागरूक करता हूँ.. ऑटोरिक्शा में, बस में, ट्रेन में खुले आम बाद विवाद करता हूँ.. अपने टूटे हुए मोबाइल को बैग में जमा कराके दुनिया की निष्प्रयोज्य ऑनलाइन व्यस्तता का अध्ययन करता हूँ.. फुलवरिया को व्हाट्सएप्प पे ललका धड़कता दिल नहीं भेज पाता बस लंच ब्रेक में एक चुम्मी दे देता हूँ.. ऐसा लगता है मानो जिंदगी में टाइम डबल हो गया है और करने के लिए बहुत कुछ है।

Sunday, March 27, 2016

पद से पदाधिकार

    
               उत्तर प्रदेश लोक सेवा आयोग द्वारा आयोजित सिविल सेवा परीक्षा का परिणाम और फिल्म ‘गब्बर इज बैक’ के प्रदर्शन का वक्त थोड़ा ही आगे-पीछे रहा। यह महज संयोग है कि एक प्रेरक फिल्म का प्रदर्शन ऐसे समय हुआ, जब देश के प्रतिभावान नौजवान सिविल सेवा की परीक्षा में सफल होकर आला अधिकारी बनेंगे और विभिन्न क्षेत्रों में योगदान करेंगे। इस परीक्षा में सफल अभ्यर्थी न केवल अपने समाज, बल्कि पूरे देश के लिए प्रेरणास्रोत होते हैं। देश के अति प्रतिष्ठित परीक्षा में सफलता पाने में इन नौजवानों को किन-किन कठिनाइयों से जूझना पड़ता है, जीवन की उतार-चढ़ाव की बारीकियों को समझना पड़ता है और फिर सफलता मिलने पर जो खुशियां मिलती हैं, वह समझा जा सकता है। पिछले दो-ढाई दशक से सिविल सेवा के प्रति युवाओं में काफी दिलचस्पी बढ़ी है। युवाओं का यह उत्साह सराहनीय है।
               लेकिन इसके साथ कई चिंताएं भी खड़ी हुई हैं। बढ़ता भ्रष्टाचार, बेरोजगारी की समस्या, अराजकता का माहौल को लेकर कोई भी संवेदनशील व्यक्ति चिंतित हो सकता है। हर साल सैकड़ों नौजवान आइएएस और आइपीएस बनते हैं। इसके बाद पूरा देश उनकी कामयाबी को स्वीकार करता है और उनके जज्बे को सलाम करते हैं और अपने बच्चों को उनके जैसा ही अफसर बनाने का सपना देखते हैं। लेकिन कुछ दिनों बाद ही हम निराश होने लगते हैं। इसकी वजहें भी हैं। विद्यार्थी जीवन जैसा उत्साह आइएएस की तैयारी करने वाले के भीतर होती है, कामयाबी के बाद वही जज्बा नौजवान अधिकारी में नहीं रह जाता। वह भी उसी संस्कृति का मात्र एक हिस्सा बन जाता है जो आज तक चली आ रही थी। क्या यह नहीं लगता है कि सिविल सेवा की तैयारी करने वाले विद्यार्थियों में देश को बदलने का जज्बा अब लगभग समाप्त हो गया है?
              आज कोई नौजवान इस क्षेत्र को इसलिए चुनता है कि उसका समाज में रुतबा बढ़ जाए। उसकी गिनती भी आभिजात्य वर्गों में हो और उसके पास आधुनिक सुविधाओं से सजा एक संसार हो, जहां उसे किसी चीज की तकलीफ नहीं हो। फिर पद, पैसे और शक्ति के बल पर कानून को रोज तोड़ा जाए और अपने बचाव के लिए उन्हीं कानूनों को हथियार बना कर खुद को सुरक्षित रखा जाए। मैं यह नहीं कहता कि सभी ऐसे ही सोचते हैं। देश के कई वरिष्ठ अधिकारी हुए हैं जिन्होंने अपने दायित्व को निभाया ही नहीं, बल्कि पूरी जिंदगी आम लोगों के नाम कर दिया। लेकिन मौजूदा परिस्थिति में ऐसे लोग केवल अंगुलियों पर गिने जा सकते हैं और अपवाद के तौर पर ही देखे जाते हैं।
              सिविल सेवा के लिए चयनित सभी प्रतिभागी देश के ऐसे विशिष्ट नौजवान हैं, जो सवा सौ करोड़ लोगों में सबसे बेहतर योग्यता रखते हैं। वे चाहें तो धारा को मोड़ दें या एक नई धारा ही बना लें। मैं समझता हूं कि अब समय आ गया है कि देश में जो भ्रष्ट अफसरों की फौज जमा हो रही है, उस पर नकेल कसने की जरूरत है। हमने पहले चल रही व्यवस्था को देख लिया। निराशा के सिवा कुछ नहीं मिला। अब इस ओर कुछ करने में नौजवान अधिकारी निश्चित ही सक्षम हैं। आज भ्रष्ट व्यवस्था से निपटना ही इन अधिकारियों के लिए गंभीर चुनौती है।

Friday, March 25, 2016

मोबाइल-संस्कृति

      अभी मैंने कुछ दिनों से अपने फोन से ‘वाट्सऐप’ और ‘मैसेंजर ऐप’ अनइनस्टॉल कर रखा है महीने दो महीने के अंतराल पर अपने मोबाइल में से ‘वाट्सऐप’ और ‘मैसेंजर ऐप’ को हटा देता हूं। इन्हें हटाते हुए ‘निर्णय’ लेता हूं कि आगे दोबारा इन्हें नहीं डालूंगा! आपसी संवाद का जरिया अब ऐप्स नहीं, आमने-सामने की बातचीत ही रहेगी। लेकिन कुछ समय बाद मुझे खुद ही इनकी ‘जरूरत’ फिर से महसूस होने लगती है। हालांकि दोबारा मोबाइल में इन ऐप्स को डालते हुए तय यही करता हूं कि इनका इस्तेमाल न के बराबर करूंगा। लेकिन ऐसा भी संभव हुआ है कभी!
     दरअसल, मोबाइल की दुनिया ने हमें इस कदर अपनी ‘जकड़’ में लिया है कि हम चाह कर भी उससे या किस्म-किस्म के ऐप्स से पीछा नहीं छुड़ा पाते। अगर खुद इससे मुक्त होने की कोशिश की भी जाए तो लोग ‘मजबूर’ कर देते हैं उसके साथ बने रहने के लिए। हालत यह है कि अपवादों को छोड़ कर अब कोई आमने-सामने संवाद या बातचीत नहीं करना नहीं चाहता। न किसी के पास समय है न एक-दूसरे से मिलने की इच्छा। मोबाइल ने संवाद और रिश्तों की दुनिया को किस्म-किस्म की ऐप्स में समेट कर रख दिया है। कभी किसी की खैरियत भी लेनी हो तो वाट्सऐप करके पूछ लो या फिर स्काइप-हैंगआउट पर बात करके। देखते-देखते हम खुद में इस कदर सीमित होकर रह गए हैं कि बाहरी दुनिया से संबंध-रिश्ते हमने न के बराबर कर लिए हैं। खाली वक्त को काटने का जरिया अब किताबें या आपसी मेलजोल नहीं, सिर्फ मोबाइल है।
      धीरे-धीरे कर यह बीमारी बच्चों में भी आती जा रही है। यों बच्चों को अपने स्कूल की भारी-भरकम किताबों से ही फुर्सत नहीं मिलती। लेकिन जब मिलती है, तब उनके हाथ में भी मोबइल ही होता है। मोबाइल से खेल कर वे अपना मन बहलाते हैं। अगर मोबाइल से छूटे तो कार्टून नेटवर्क में रम जाते हैं। बच्चों के पारंपरिक खेल अब इतिहास बन कर रह गए हैं। मैंने अक्सर ऐसे मां-बाप को अपने बच्चों की तारीफ करते सुना है कि हमारा ढाई-तीन साल का बच्चा भी मोबाइल की सारी ऐप्स हमसे ज्यादा अच्छे से चला लेता है। दरअसल, बच्चों को भी मोबाइल की दुनिया में धकेलने में हम मां-बाप का भी बड़ा योगदान है। लेकिन इसे हम स्वीकार नहीं करेंगे।
      धीरे-धीरे कर अब रिश्ते भी मोबाइल सरीखे होते जा रहे हैं। चूंकि रिश्तों में संवाद बचा नहीं, इसलिए दूरियां और व्यस्तताएं इस कदर बढ़ गई हैं कि अक्सर हमें खुद से ही संवाद किए हफ्तों-महीनों बीत जाते हैं। हमारे बीच सुख-दुख को आपस में मिल-बैठ कर बांटने का जो जज्बा कभी हुआ करता था, अब वह निरंतर छीजता जा रहा है। हम सबने अपनी-अपनी अलग दुनिया बना ली है, बस उसी में अपने मोबाइल के साथ खुश रहते हैं। और जब दुखी होते हैं तो फेसबुक या ट्विटर पर चंद लाइनें लिख कर, कुछ ‘लाइक’ और ‘कमेंट’ पाकर संतोष कर लेते हैं। दिलचस्प है कि अब हमें अपनों की चिंता किए जाने से कहीं बढ़ कर आभासी संसार द्वारा चिंता किया जाना लगता है। मरने-जीने की खबर रिश्तेदारों को बाद में दी जाती है, पहले फेसबुक पर सूचना डाली जाती है।
      मोबाइल-संस्कृति ने हमें इस कदर ‘आत्मकेंद्रित’ कर दिया है कि रात को सोते समय भी हमें घंटी बजने या मैसेज का आभास होता है। जिस तेजी से मोबाइल की दुनिया बदल रही है, उतनी ही तेजी से हम उसके भीतर समाहित होते जा रहे हैं। अगर मोबाइल पास है तो सब कुछ पास है। दोष दूसरों को ही क्यों दंू, मोबाइल के आकर्षण से मैं खुद को भी कहां बचा पाया हूं! समय-असमय मोबाइल से दूर रहने की प्रतिज्ञा खुद ही टूट जाती है। शायद यही वजह है कि मोबाइल के सागर में संवाद कहीं गुम-सा हो गया है।

Tuesday, March 22, 2016

बघाड़ा लॉज दर्शन

       इलाहाबाद आज भी उत्तर-प्रदेश का सबसे बड़ा सिविल सर्विस मॉल है, हर दूकान(कोचिंग) पे सरकारी नौकरियों की सुनिश्चितता बिकती है, वर्षों पहले मित्र रामकिशुन के कमरे पे गया, मसाला कुचकुचाते रामकिसुन मिल गये। एक गिलास में हरा धनिया, लहसुन, मिर्च डालकर उसे बेलन से गिलास में ही कुचकुचा रहे थे। बगल में ही रेडियो पर बज रहा था - राम करे ऐसा हो जाये......मेरी निंदिया तोहे लग जाये.... मैं जागूं तू सो जाय......मैं जागूं......
       वहीं एक तरफ दीवाल पर सिंहासन पर बैठे हुए सम्राट अशोक का चित्र टंगा था, देखते ही लगता था कि कोई बंदा यहां पर सिविल सर्विसेस की तैयारी में सम्राट अशोक को आदर्श मान रहा है, जरूर IAS, PCS बनना चाहता है. दूसरी दीवाल पर नियॉन, ऑर्गन, क्रेप्टॉन से सुसज्जित Periodic Table. शायद Chemistry की तैयारी भी चल रही है, एक जगह घी, तेल, चावल, दाल आदि को रखे देखा। उन्हीं के बीच चॉक से लिखा था Welcome 2009. कुछ पुराने पोस्टर या चित्रों के फाडे जाने या हटाये जाने के अवशेष दिख रहे थे, एक जगह विवेकानंद का चित्र था, बगल में अखबार की कोई कटिंग चिपकी थी जिसमें एक शख्स की Black and White फोटो दिखी । पूछने पर पता चला एक बंदा यहां का सिविल सर्विसेस में चुना गया था। इसी कमरे में रहता था। सो, हम लोगों ने उसके सम्मान में अखबार में आये उसके चित्र को कटिंग कर यहां चिपका दिया है, मकान मालिक कमरा देने से पहले ही हिदायत दे देता है, इस कटिंग को हटाना नहीं। दीवाल पर चिपके रहने देना है,
तहरी बनाई जा रही थी,उन्हीं सब के बीच कुछ हंसी-मजाक वाला बतकूचन भी चल रहा था, विषय था कौन....कहां.....क्या........कैसे.... हर बात के पीछे हंसी ठट्ठा जमकर हो रहा था.
एक बोले - अरे रामकिसुन जी, आप तो खाली एक अढैया खा लोगे और लगोगे सोने, थाली भी नहीं सरकाओगे कि कम से कम वही सरका दें, बाद में भले सुबह उठ कर सूखी कटकटा गई जूठी थाली को एक घंटा मांजोगे.
- अरे तो क्या हुआ, मांजते तो हैं न,मेरा तो ये मानना है कि खाना खाओ तो वहीं सो जाओ, थाली सरकाना मतलब एहसान फरामोश हो जाना है, कि, खा लिये और सरका दिये।
मैं रामकिसुन जी की खाना खाने और थाली न सरकाने के पीछे छुपे दर्शन को देख थोडा दंग था,हंसी-मजाक भी दर्शनशास्त्रमय हो उठा,तभी एक और विषय उठा - नमक, दरअसल बगल के कमरे से कोई छात्र नमक लेने आ पहुँचे. मैंने देखा नमक के नाम पर बडी-बडी डली थी डिब्बे में. मैं पूछ बैठा - अरे भई, ये तो पहले पुराने समय में मिलने वाला नमक है, बडे-बडे ढोके वाला,अब भी मिलता है क्या. ये तो आयोडाइज्ड नमक नहीं है।
एक बोले - यहां किसको बच्चा होने जा रहा है जो आयोडीन वाला नमक खाये.
सभी फिर एक बार ठठाकर हंसे.
अरे भई, सस्ताहवा नमक लिये, ढेला फोडे, डाल दिये. एतना सोचने लगे तो कर लिये तैयारी कम्पिटीशन की,
फिर भी, क्या अब भी ये मिलता है, मैंने तो समझा था बंद हो गया होगा.
बंद तो नहीं हुआ लेकिन अब भी बडे-बडे डली या ढेले के रूप में गांव देहात में बिकता है, गांव से आ रहे थे तो मय झोला-झक्कड यह ढेलेदार नमक भी टांग लाये थे।
दूसरे छात्र बोले - अरे बस नमक, और वो ससुराल से खटाई और घी लेते आये वह क्यों नहीं बताते।
पता चला जिस छात्र के बारे में बातें हो रही थीं उसकी शादी हो चुकी है और दो बच्चे भी हैं। पत्नी सुदूर देहात में अपने दो बच्चों के साथ है और ये महाशय यहां कम्पिटीशन की तैयारी कर रहे हैं,पत्नी का चयन शिक्षामित्र के रूप में गांव में हो गया है और कुछ खर्चा पानी घर का वह ही उठाये हुऐ हैं.
तो बात चल रही थी नमक के ढेले पर. कि......नमक का ढेला फोडा, दाल में डाला, दाल तैयार, तभी एक गांव-देहात का एक छात्र मजे लेकर कुछ गाने लगा. प्रहलाद नामक एक छात्र को चिढाते बोला -
अरे कहा है न-
हाय राम,
आईल कइसन बेला,
हमरे नौ-नौ गदेला ( बच्चे)
बलम मोरे फोडें ढेला..... बलम मोरे फोडें ढेला
उसका इतना कहना था कि सब लोग फिर एक बार हंस-हंसकर लोट पोट होने लगे. दरअसल यह गीत बिरहा वाला गीत है और एक पत्नी के दर्द को बयान कर रहा है कि मेरे नौ-नौं बच्चे हो गये हैं और आमदनी का ये हाल है कि पति मेरे ढेला फोडने वाला काम कर रहे हैं.ढेला फोडना यानि निरर्थक काम करना.
मैं भी सोच में पड गया कि यार ये तर्ज तो काफी छांट कर लाया है पट्ठा.यहां तो सचमुच प्रहलाद पतिदेव घर से लाये हुए नमक का ढेला फोड रहे हैं, निरर्थक सरकारी नौकरी के लिये प्रयत्न किये जा रहे हैं जिसकी आशा अब बढती उम्र के कारण क्षीण होती जा रही है और वहां पत्नी है कि अपने बच्चों को लेकर किसी तरह चल रही है..
यह बैठकी काफी देर तक चली. अब तो पोस्ट भी लंबी हो चली है......चलिये बंद करता हूँ न आप लोग कहेंगे, क्या ढेलेदार पोस्ट है.....ससुर फोडते रह जाओ, कुछ न निकले

Monday, March 21, 2016

'शायर गुमनाम'

खुरुच लेने दो दीवारों को
शायद यहीं-कहीं
उसका नाम लिक्खा था ।

बड़ा बेतरतीब हो गया
मेरा कमरा,
यहीं मेज पे तो कहीं
उसका दिया गुलदान रक्खा था ।

इसी खिड़की के पास
जरा गौर से देखो,
एक जोड़ा निगाहों का
वहीं टांग रक्खा था ।

इसी लकड़ी की आलमारी के
ऊपरी दराज में,
फाईलों में बंद, अपनी जिन्दगी का
अंजाम रक्खा था ।

कोशिशें लाख की कि
अपनी किस्मत बदल लूँ
हुआ वही जो खुदा ने
इन्तेजाम लिक्खा था ।

'शब्दभेदी' खो रहा था सबकुछ
इक अंधी दौड़ में,
और लोगों ने उसका नाम
'शायर गुमनाम' रक्खा था ।

Sunday, March 20, 2016

तलाश जारी है...

        सिविल लाइन्स की भीड़ भरी सडको को पीछे छोड़ते हुए , अंतर्द्वंद की एक भीड़ अपने मन में लिए, मैं शांत कंपनी बाग़ में प्रवेश किया. बाग़ में आये लोगों के खिले हुए चेहरों में कुछ खोजता हुआ, मन में एक गुबार लिए आगे बढ़ ही रहा था की किसी ने पीछे से आवाज लगाई संजीव... ओय संजीव...! पहली बार तो मैंने नजरअंदाज किया , फिर गौर किया तो पाया,      वो नाम भले ही किसी और का ले रहा था लेकिन बुला मुझे ही रहा था .
    रुक के ध्यान से देखा, अंजान से चेहरे को पहचानने की कोशिश की.. १८ या १९ का रहा होगा , चेहरे पर हल्की-फुलकी झुर्रियां थी. मेरे पीछे देखते ही मुझे अपनी तरफ आने का इशारा किया और खुद भी बड़ी तेजी से बढ़ने लगा ..
उसके मिलने का अंदाज कुछ इस कदर गर्मजोशी भरा था जैसे हमारी वर्षों की पहचान हो .. मुझे समझते देर नही लगी की वो किसी वहम में है...
      " यार कहाँ हो दो साल से ...? परीक्षा के समय हम आखरी बार मिले फिर तो तुम गायब ही हो गये, मैं तुम्हारे हॉस्टल भी गया, पता चला तुम यहाँ नही रहते... भाई कहा थे....? " उसने विस्मय से कहा.
      हम पास ही लगी बेंच पर बैठ गये.
      मैंने जब मुस्कुराते हुए उसे इस बात का एहसास कराया कि जिस मित्र को वो ढूढ़ रहा है वो मैं नही हूँ...
तो शर्मिंदा हुआ और माफ़ी मांगने लगा..
       " ग़लतफ़हमी हुयी माफ़ कीजियेगा, मेरा मित्र बिलकुल आप ही की तरह है , मगर दो साल से हमारी मुलाकात नहीं हुई."
मैं उसकी भावनाओं को समझ रहा था , मैंने सांत्वना दी और जाते-जाते चाय ऑफर कर दी ..
वो सॉरी बोलता हुआ उठा और विपरीत जाने लगा..
         इस सर्द शाम में ठण्ड पड़ी उस लोहे की बेंच पर मैं स्तब्ध बैठा रहा और सोचता रहा ' अपने तमाम गुबार को तो मैं सम्हाल नही पा रहा हूँ और उसे सांत्वना दिए जा रहा था..'
         खैर... वो मुझमे अपने किसी मित्र को तलाश रहा था जिसे वो वर्षों से जानता है , मगर मैं उसमे खुद को देख रहा था जो किसी ऐसे मित्र की तलाश में हूँ जिसे मैं जनता तक नहीं..!