Friday, November 11, 2016

रतजगों का हस्र

रतजगों की जद में आयी न जाने कितनी रातें,
ये सोचते थे कि ज़िंदगी पड़ी है सोने को।
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लुटाते रहे अपना बहुत कुछ इसी नासमझी में,
फकीर हैं, हमारे पास है ही क्या खोने को।
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रत्ती-रत्ती जो अरसे तक होते रहे हमारे,
ज़िद उनकी भी थी, उनका हमे एकमुश्त होने को।
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शब्दभेदी बहुत कुछ है ज़िन्दगी में उसके सिवा,
उठो चलो अब आगे बढ़ो, वक्त कहां है रोने को।

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