कल देर रात तक मेरे दो परम मित्र अमितेश और अनंत के साथ, हमारे जीवन में दिल और दिमाग की भूमिका पर बहस चली। बहस का सार सुनने से पहले एक रोचक वाकया सुनिये...
पिछले विधानसभा चुनाव के ठीक पहले हमारे क्षेत्र के एक प्रतिष्ठित नेता जी जो की कई सालों से बसपा में थे, तात्कालिक लाभ को देखते हुए दल बदल कर सपा में आये थे। पहली बार सपा के मंच पर बोलते हुए उन्होंने बखूबी अपने दिमाग का प्रयोग किया। बसपा सुप्रीमो की तानाशाही की उलाहना से लेकर समाजवाद और लोहिया जी के विचारों से प्रेरित होकर दल बदलने के पूरे सफर को उन्होंने तर्क के साथ जनता के सामने रक्खा, और खूब तालियां और सहानभूति बटोरी।
जनता जनार्दन का इतना समर्थन देख कर गदगद हुए नेता जी के दिमाग ने भाषण के अंत में अपनी पकड़ ढीली कर दिया और सब कुछ दिल के पाले में छोड़ दिया। नेता जी ने जोश में आकर फ्लो-फ्लो में सपा के मंच से जय भीम जय भारत का नारा लगा दिया। नेता जी का दिल था कि अभी तक बसपाई था।
आनन-फानन में टुचपुचिये नेताओं ने माइक सम्हाला और समाजवाद, लोहिया और मुलायम का जैकारा लगाकर माहौल सुधारने की कोशिश की। लेकिन ये जो पब्लिक है सब जानती है, सब गलत सही पहचानती है। बचा-खुचा काम मिडिया ने अगले दिन अखबारों को दिल की बातों से पाट दिया। दिल की बात जनता दिल पर ले बैठी और चुनाव में सपा का तगड़ा माहौल होने के बावजूद नेताजी को करारी हार का सामना करना पड़ा। धोबी का कुत्ता बने नेता जी अबकी बार निर्दलीय लड़ेंगे।
खैर इस लघु कथा का मोरल यह था की दिल और दिमाग का सही सन्तुलन ही इंसान को संसार में बेहतर जीवन जीने के लायक बनाता है।
अब हमारी कल रात की बहस पर आता हूँ मित्र अमितेश ने फेसबुक पर स्टेटस अपडेट किया कि हमेशा दिल की सुनने वाला व्यक्ति खुस रहता है, इसलिए ज़िन्दगी के निर्णय दिल से करने चाहिये। मित्र अनन्त ने बात का समर्थन करते हुए लिखा दिमाग सारी बेवफाई का जनक होता है। अब मेरी नजर पड़ी तो मैंने सन्तुलित जवाब देने कि कोशिश किया और कहा कि अकेले दिल की सुनने से कुछ न हो पायेगा और दिल-दिमाग का अगर बेहतर संतुलन बना पाए तब ज़िन्दगी बेशक खूबसूरत हो जायेगी।
अब मेरे संवेदनशील भाइयों ने दिल की वकालत करते हुए दलीलें पेश करना शुरू कर दिया। अब हालांकि नेता जी की तरह मैं भी दिल का मारा हूँ तो मुझे दिल का विरोधी मानकर मेरे तर्क को दिमाग के पक्ष में माना गया। लेकिन सच ये है कि जब दिल मुझे ज़िन्दगी के मजे दे रहा था तब भी मैं यही मानता था कि दोनों का संतुलन होना चाहिए। तो बहस का निष्कर्ष निकला कि तीन नए मुल्ले मिल कर बाग़ दे रहे है।
अक्सर हम देखते हैं कि जो लोग बहुत समझदार होते हैं , संवेदनशील नहीं होते , क्योंकि वे विचार शक्ति पर ही इतने केंद्रित रहते हैं कि समझदार व तर्कशील बनने में ही लगे रहते हैं और वो जो इतने संवेदनशील होते हैं कि जरा सा कुछ होने पर ही उनकी आँखों में आँसू आ जाते हैं , वे ज्यादा समझदार नहीं होते। और जब हम बुद्धि और भावनाओं दोनों में संतुलित इंसान को पाते हैं तो उसके व्यक्तित्व के कायल हो जाते हैं। बुद्धि का अपना विशेष स्थान है और भावनाओं का भी ।
Tuesday, September 27, 2016
दिल बनाम दिमाग
तोहफा-ए-आशिकी
हंसते थे हंसाते थे जो बेसुध पड़े हैं,
तुमने बेचारों की सोहबत बिगाड़ दिया है।
दोज़ख में जाओगे हम कहे देते हैं,
इश्क तुमने मासूमों को बर्बाद किया है।
घर के ज़िम्मेदार अब आवारा फिरते हैं,
तोहफा-ए-आशिकी जो तूने यार दिया है।
'शब्दभेदी' लगाओ बेड़ियां चढाओ फाँसी इश्क को,
इसने दबी-दबी सी आग को हवा दिया है।
Saturday, September 24, 2016
पुरखों की याद में
कई दफे फोन लगाने के बाद जब अम्मा ने फोन रिसीव किया तो मैंने नाराज होते हुए पूछा 'कहां हो ?? कबसे फोन कर रहा हूँ न मैं?'
'बेटा तुम्हारी माई (दादी जी) को खीर खिला रही थी।पितरपक्ख (पितृपक्ष) है ना' अम्मा बोली।
जवाब सुनके पहले तो मैं खूब हसा फिर पूछा 'किस फ्लाइट से गयी थी माई के पास?'
हंसते हुए बोली 'ऐसे नही कहते बेटा, पहले उनको अगियार (श्रद्धांजलि) देते हुए खीर चढ़ाया फिर गाय को खिला दिया और हम सबने भी खाया तुम होते तो तुम भी खाने को पा जाते माई का प्रसाद।'
मेरी हसी रुक ही नहीं रही थी। किसी तरह बात खतम करके फोन रक्खा और सोचने लगा तो हसी के ठहाके एक गहरी याद में डूबने लगे।
बाबू जी को गुजरे हुए छः साल हुए थे, उनके जाने के बाद से माई गुमसुम सी रहने लगी थी। हम लोगों को कभी बहुत खुश देखती तो हल्की सी मुस्कान उनके चेहरे पर भी आ जाती, फिर कुछ ही देर में वे अपनी उसी दुनिया में खो जाती। बड़ी दीदी की शादी अपनी आँखों से देख लेना, उनकी आखिरी इच्छा थी। लेकिन जैसे बाबू जी ने कहा हो मेरे बगैर तुम अकेले यहां क्या करोगी यहीं आ जाओ दोनों एक साथ देखेंगे अपनी बड़ी नतिनी की शादी। आखिरी समय में तो वे बिलकुल भी ठीक नहीं थी, कभी-कभी हम लोगों को पहचानने से इंकार कर देती थी।
मुझे अच्छी तरह याद है , जब पापा दीदी की शादी के सिलसिले में इधर-उधर परेशान थे, सूरत से मुंबई तक रिस्तेदारों की चौखट नाप रहे थे। उसी समय माई की तबियत भी खराब रहने लगी। पापा को घर आना पड़ा। पापा माई को हमेशा खुश रखने की कोशिश करते, उन्हें लगता था उनकी नासाज तबियत का कारण उनकी उदासी है। जहाँ तक मेरा खयाल है माई को किसी भी बात में रूचि नहीं रह गयी थी। मैं माई का लाडला था, और शायद उनके सबसे करीब भी। मुझसे उनकी हालत बिलकुल देखी नही जाती थी। इंसान अजनबी हो तो कोई बात नही होती लेकिन रवैया अजनबी हो तो बहुत दुःख होता है। कभी-कभी मुझे अपने पास बुलाकर बिना सर-पैर की बातें करने लगती। डॉक्टर्स भी कह चुके थे, अंतिम समय चल रहा है और इनकी दिमागी हालात सही नहीं है। मगर मुझे ऐसा लगता था जैसे वो सब-कुछ जानबूझ के करती हैं।
मेरा बोर्ड एग्जाम नजदीक था, मैं देर रात तक लालटेन के आगे बैठ कर पढ़ा करता था। माई रातों को अक्सर उठ कर टहलने लगती थी। पापा ने रात में उन पर नजर रखने की जिम्मेदारी मुझे दे रक्खी थी। एक रात, करीब एक बजे मैं मेज पर कुहनी टिकाये पढ़ रहा था। मेरी पीठ माई की खटिया की तरफ थी। मुझे पता भी नहीं चला कब माई उठकर पेरे पास आकर खड़ी हुई। रात के उजियारे में सामने दिवार पर परछाई दिखी तो अचानक मैं पीछे मुड़ा। बीमार रहने की वजह से धंसी हुई आँखे , खुले बाल और टूटे दांतों के बीच एक दो दांत। मैं डर से चिल्लाने ही वाला था कि कहतीं हैं ' सोइ जा बचवा, लालटेन के आगे काहे आँख फोरत था ' पहले सोचा पापा को जगाऊँ, फिर खयाल आया क्यों ना माई से कुछ देर बात ही करूँ, जाने कितने दिनों बाद तो उन्होंने मुझे बचवा कहके बुलाया था।
'माई तबियत कइसे बा' मैंने पूछा। बेमन की मुस्कान के साथ उन्होंने करवट बदल ली, और मैंने मुड़ के उनके चेहरे को देखा तो आंसू की एक गरम बूँद गाल पर ढलक रही थी। जैसे वो बहुत कुछ कहना चाहती हो, मगर कह नहीं पा रही हों। एक अंतर्द्वंद उनके चेहरे पर साफ झलक रहा था, शायद वे कष्टदायी शरीर से मुक्ति भी पाना चाहती थी और हमें छोड़ के जाना भी नहीं चाहती थी।
माई... माई रे.. काफी देर तक मैं उन्हें बुलाता रहा मगर उन्होंने चुप्पी नहीं तोड़ी। मैं हारकर उठा और अपने बिस्तर पर आ बैठा। थोड़ा नादान था इसलिए गुस्सा आया कि माई मुझसे कुछ बोल क्यों नही रही है। मैं लालटेन बुझाकर सोने की कोशिश करने लगा। लेकिन उलझन भरी रातों में नीद कहां आती है। अंजोरिया रात फैली हुई थी। मेरे गले में जैसे कुछ अटका हो, दिल में एक अजीब सा दर्द हो रहा था। दिमाग को शून्य की तरफ के जाने की कोशिश में मैं आसमान को निहारने लगा। एक बार मुझे लगा कि माई ने करवट बदली और मुझे देख रही हैं। लेकिन मैंने नाराजगी दिखाते हुए उन्हें नजरअंदाज किया और चादर में मुंह छिपा लिया। काफी देर तक वो मुझे उसी तरह आशा भरी नजरों से देखती रहीं। मुझे कब नींद आयी मुझे पता भी नहीं चला।
सुबह शोर-शराबे से नींद खुली। लोग रो रहे थे। मेरे सिरहाने कुछ ही दूर पर माई को जमीन पर लिटाया गया था। उन्हें सफेद कपड़ा ओढ़ाया गया था। नाक और कान में रूई डाली गई थी। अम्मा माई को पकड़ के जोर-जोर से रो रही थी। घर और पास-पड़ोस की औरतें भी आस-पास बैठी थी। दुआर पर गाँव के कुछ लोग खड़े थे। पापा घर की एक छुही पर टेक लिए मायूस बैठे थे। अचानक मैं धक्क सा रह गया । मेरे दिमाग ने गवाह दिया कि माई चली गयी। माई का निहारता हुआ चेहरा मेरी आँखों के सामने नाचने लगा। मन हुआ कि रात ही की तरह फिर से अपना मुंह चादर में ढक लूँ। इतना अफ़सोस आजतक मुझे अपनी किसी गलती पर नहीं हुआ, जितना उस समय हो रहा था। रात को शायद माई मुझसे फिर से बात करना चाहती थी मगर मेरी नादानी ने मुझे आखिरी समय में उनसे दूर कर दिया था। आज भी उस दिन को याद करके खुद को दोषी सा महसूस करने लगता हूँ।
Tuesday, September 20, 2016
शहर-ए-इश्क
दिल्ली तुमसे इश्क ना होगा हमें,
चल दिल्लगी ही कर लेता हूँ।
शहर-ए-इश्क तो अब छूटा हमसे,
बात-बेबात याद ही कर लेता हूँ।
अपनी गली में रहने की ख्वाहिश नहीं किसे,
ख्वाबों में ही सही उधर से गुजर लेता हूँ।
मजबूरी का सौदा है ये 'शब्दभेदी',
मैं गांव बदल-बदल कर शहर लेता हूँ।
Friday, September 16, 2016
हिदायत-ए-इश्क
तुम थे तो इक शौक चढ़ा था,
खुद को चमकाने - महकाने का।
तुम चले गए तो इक शौक चढ़ा है,
खुद को बहलाने - उलझाने का।
हिदायते इश्क लाख, कि शम्मा राख कर देगी,
जलना तो ज़िद होता है, दीवाने - परवाने का।
'शब्दभेदी' बाज आओ, तौबा कर लो,
इक भूल मुआफ़ है, हर जाने-अनजाने का।
दरबे ही दरबे
परिंदे भी नहीं रहते पराये आशियानों में,
हमारी उम्र गुजरी है किराये के मकानों में।
किराये के मकान में बीत रही ज़िन्दगी से त्रस्त किसी शायर का यह शेर मेरी पसंददिदा लाइनों में से है। हालांकि मैं कुछ अतिआशावादी ख्याल का हूँ, मेरा मानना है कि मनहूशियत किसी जगह पर नहीं होती है ये तो इंसान के भीतर होती है। यदि आदमी खुसमिजाज है तो वो किसी भी जगह जाये माहौल को संजीदा बना ही लेता है। लेकिन ये तो रही एक तरह के ख्याल और असूलों की बात, दरअसल जब मैं उक्त शेर को इलैबरेट करता हूँ तो पाता हूँ कि शायर ने यूँ ही नहीं खुद को परिंदो से भी गया गुजरा लिखा है, उसने भी किराये के कमरे के तमाम दुखों को झेला होगा। कभी-कभी न तो जगह मनहूस होती है और ना ही आदमी बल्कि हालात मनहूस हो जातें हैं।
सच है परिंदे या तो तिनका - तिनका चुनकर अपना घर बना लेते हैं या फिर पेड़ पत्तियों के नीचे ज़िन्दगी काट लेते हैं, क्या करें उनके पास किराये के कमरे का विकल्प भी तो नही होता। और आदमी! आदमी अपनी बेबुनियादी जरूरतों को पूरा करने शहर की ओर भागता है और शहर पहुच कर शुरू करता है आशियाने की तलाश। फिर क्या आठ बाई दस के कमरे में भी एक दुनियां बस जाती है ।
दरअसल ये कमरे नहीं दरबे है दरबे। इस दरबे में नींद वीरान टापू में तब्दील हो जाती है और डरावने सपने आते हैं। मकान मालिक की शिकायतें और अपमान गले में नुकीले कंकड़ की तरह चुभते हुए छाती की तलछट में जमते रहते हैं। कभी तो मन में आता है, कहें ' जितने में तुम्हारा ये महल खड़ा है उससे बड़ा घूर लगा करता है हमारे घर। आलम ये है कि पूरी दिवार चाहे किलों से पटी हो लेकिन आप अपनी कोई प्यारी सी याद टांगने के लिए कील नहीं ठोक सकते। दीवार में किसी भी जगह से प्लास्टर झड़ रहा हो, उसके इकलौते और आखिरी ज़िम्मेदार आप ही हैं। अब क्योंकि आपकी आज़ादी भी आप ही की तरह निहत्थी है इसलिए आपकी छोटी-छोटी आज़ादी पर रोज हमले होंगे। किराये में कमरे न हुए जैसे कोई दुर्घटना हो, पल-पल घटती त्रासदी हो जैसे।
मुझे भी एक दशक हो रहे हैं घर छोड़े हुए, लम्बा अरसा इलाहाबाद में बीता इन दिनों दिल्ली में हूँ । हालात सब जगह एक जैसे ही हैं। यहां दिल्ली में कमरों के लिए ब्रोकरी एक चमका हुआ बिजनेस है। ब्रोकरों के हाथ में एप्पल के आई फोन और गले में मोटी सोने की चेन होती है और सुसज्जित बड़े दफ्तर। इन दफ्तरों के सामने किराये के कमरों के लिए बड़े - बड़े इश्तेहार लगे होते हैं। इश्तेहारों में लिखा होता है 'कमरे ही कमरे'। इन पर नजर पड़ती है तो अनायास ही मुंह से निकल पड़ता 'दरबे ही दरबे'।
Sunday, September 11, 2016
बेफिक्री के कस
बड़े शहरों की चकाचौध भरी जिंदगी बेशक हमें कई तरह के भौतिक सुख देती है लेकिन उसी अनुपात में दुनिया की जीवंतता से भी दूर करती हैं। हाल ही में जब एक दिन नौकरी पाने की जद्दोजहद से निकलने का मौका मिला तो इस पहलू पर थोड़ा ज्यादा गौर कर सका । यूँ तो दिल्ली अपने आप में विविधताओं के केंद्र के रूप में ही निखरती है। लेकिन यहां के एकाध ठिकाने इसी विविधता को कलात्मक शक्ल देते हैं। ऐसी ही खुशनुमा और गुलजार जगहों में से एक है कनाड प्लेस, जहां न सिर्फ स्थानीय लोगों, बल्कि देशी-विदेशी पर्यटकों का जमावड़ा हर वक्त लगा रहता है। बिलकुल मेरे याद शहर इलाहाबाद की तरह चौड़ी सड़कें, मोड़ पर कुछ गुमटियां जिनके ओट में खड़े होकर बेफिक्री के कुछ कस लिए जा सकते है।
मुझे अच्छी तरह याद है जब मुझे दिल्ली आने के लिए ट्रेन पकड़नी थी। ट्रेन रात दस बजे की थी और अपना शहर छोड़ने की उदासी मेरे मुझे सुबह से ही झकझोर रही थी। जी चाहता किसी फिल्म की तरह मैं चन्द घंटे में पूरे शहर के चक्कर काट आऊं। कभी बालसन चौराहा तो कभी सुभाष चौराहा, यूनिवर्सिटी रोड, लक्ष्मी चौराहा, बैंक रोड। एक-एक चाय की चुस्की, एक-एक कस आँखों के सामने घूम रहा था। शाम के छः बजते ही जैसे दिल की धड़कन तेज होने लगी, मुट्ठी में भरे रेत की तरह सब छूटता महसूस हो रहा था मुझसे रहा नहीं गया। मैंने अनंत से कहा हम चाय पीने बैंक रोड चलेंगे। थोड़ी ना नुकुर के सब निकल पड़े। शायद उसी वक्त मुझे ये एहसास हो चुका था ज़िन्दगी की भागदौड़ में ना जाने ये बेफिक्री फिर मिलेंगी भी या नहीं इसलिए लूट लो आखिरी वक्त में जितना लूट सको।
दरअसल कनाड प्लेस मेरे रूम से दफ्तर के रास्ते पर नहीं है, यह राजीव चौक मेट्रो स्टेशन के बाहर पड़ता है। मुझे यहां आने के लिए मेट्रो स्टेशन से बाहर निकलना पड़ता है। फिर भी मैं दफ्तर से लौटते वक्त अक्सर यहां उतर जाना पसंद करता हूँ। बाहर निकल कर उन्ही गुमटियों की ओट में कस लेते हुए मैं कुछ पल के लिए अपनी उसी दुनियां में लौट जाता हूँ।