कई दफे फोन लगाने के बाद जब अम्मा ने फोन रिसीव किया तो मैंने नाराज होते हुए पूछा 'कहां हो ?? कबसे फोन कर रहा हूँ न मैं?'
'बेटा तुम्हारी माई (दादी जी) को खीर खिला रही थी।पितरपक्ख (पितृपक्ष) है ना' अम्मा बोली।
जवाब सुनके पहले तो मैं खूब हसा फिर पूछा 'किस फ्लाइट से गयी थी माई के पास?'
हंसते हुए बोली 'ऐसे नही कहते बेटा, पहले उनको अगियार (श्रद्धांजलि) देते हुए खीर चढ़ाया फिर गाय को खिला दिया और हम सबने भी खाया तुम होते तो तुम भी खाने को पा जाते माई का प्रसाद।'
मेरी हसी रुक ही नहीं रही थी। किसी तरह बात खतम करके फोन रक्खा और सोचने लगा तो हसी के ठहाके एक गहरी याद में डूबने लगे।
बाबू जी को गुजरे हुए छः साल हुए थे, उनके जाने के बाद से माई गुमसुम सी रहने लगी थी। हम लोगों को कभी बहुत खुश देखती तो हल्की सी मुस्कान उनके चेहरे पर भी आ जाती, फिर कुछ ही देर में वे अपनी उसी दुनिया में खो जाती। बड़ी दीदी की शादी अपनी आँखों से देख लेना, उनकी आखिरी इच्छा थी। लेकिन जैसे बाबू जी ने कहा हो मेरे बगैर तुम अकेले यहां क्या करोगी यहीं आ जाओ दोनों एक साथ देखेंगे अपनी बड़ी नतिनी की शादी। आखिरी समय में तो वे बिलकुल भी ठीक नहीं थी, कभी-कभी हम लोगों को पहचानने से इंकार कर देती थी।
मुझे अच्छी तरह याद है , जब पापा दीदी की शादी के सिलसिले में इधर-उधर परेशान थे, सूरत से मुंबई तक रिस्तेदारों की चौखट नाप रहे थे। उसी समय माई की तबियत भी खराब रहने लगी। पापा को घर आना पड़ा। पापा माई को हमेशा खुश रखने की कोशिश करते, उन्हें लगता था उनकी नासाज तबियत का कारण उनकी उदासी है। जहाँ तक मेरा खयाल है माई को किसी भी बात में रूचि नहीं रह गयी थी। मैं माई का लाडला था, और शायद उनके सबसे करीब भी। मुझसे उनकी हालत बिलकुल देखी नही जाती थी। इंसान अजनबी हो तो कोई बात नही होती लेकिन रवैया अजनबी हो तो बहुत दुःख होता है। कभी-कभी मुझे अपने पास बुलाकर बिना सर-पैर की बातें करने लगती। डॉक्टर्स भी कह चुके थे, अंतिम समय चल रहा है और इनकी दिमागी हालात सही नहीं है। मगर मुझे ऐसा लगता था जैसे वो सब-कुछ जानबूझ के करती हैं।
मेरा बोर्ड एग्जाम नजदीक था, मैं देर रात तक लालटेन के आगे बैठ कर पढ़ा करता था। माई रातों को अक्सर उठ कर टहलने लगती थी। पापा ने रात में उन पर नजर रखने की जिम्मेदारी मुझे दे रक्खी थी। एक रात, करीब एक बजे मैं मेज पर कुहनी टिकाये पढ़ रहा था। मेरी पीठ माई की खटिया की तरफ थी। मुझे पता भी नहीं चला कब माई उठकर पेरे पास आकर खड़ी हुई। रात के उजियारे में सामने दिवार पर परछाई दिखी तो अचानक मैं पीछे मुड़ा। बीमार रहने की वजह से धंसी हुई आँखे , खुले बाल और टूटे दांतों के बीच एक दो दांत। मैं डर से चिल्लाने ही वाला था कि कहतीं हैं ' सोइ जा बचवा, लालटेन के आगे काहे आँख फोरत था ' पहले सोचा पापा को जगाऊँ, फिर खयाल आया क्यों ना माई से कुछ देर बात ही करूँ, जाने कितने दिनों बाद तो उन्होंने मुझे बचवा कहके बुलाया था।
'माई तबियत कइसे बा' मैंने पूछा। बेमन की मुस्कान के साथ उन्होंने करवट बदल ली, और मैंने मुड़ के उनके चेहरे को देखा तो आंसू की एक गरम बूँद गाल पर ढलक रही थी। जैसे वो बहुत कुछ कहना चाहती हो, मगर कह नहीं पा रही हों। एक अंतर्द्वंद उनके चेहरे पर साफ झलक रहा था, शायद वे कष्टदायी शरीर से मुक्ति भी पाना चाहती थी और हमें छोड़ के जाना भी नहीं चाहती थी।
माई... माई रे.. काफी देर तक मैं उन्हें बुलाता रहा मगर उन्होंने चुप्पी नहीं तोड़ी। मैं हारकर उठा और अपने बिस्तर पर आ बैठा। थोड़ा नादान था इसलिए गुस्सा आया कि माई मुझसे कुछ बोल क्यों नही रही है। मैं लालटेन बुझाकर सोने की कोशिश करने लगा। लेकिन उलझन भरी रातों में नीद कहां आती है। अंजोरिया रात फैली हुई थी। मेरे गले में जैसे कुछ अटका हो, दिल में एक अजीब सा दर्द हो रहा था। दिमाग को शून्य की तरफ के जाने की कोशिश में मैं आसमान को निहारने लगा। एक बार मुझे लगा कि माई ने करवट बदली और मुझे देख रही हैं। लेकिन मैंने नाराजगी दिखाते हुए उन्हें नजरअंदाज किया और चादर में मुंह छिपा लिया। काफी देर तक वो मुझे उसी तरह आशा भरी नजरों से देखती रहीं। मुझे कब नींद आयी मुझे पता भी नहीं चला।
सुबह शोर-शराबे से नींद खुली। लोग रो रहे थे। मेरे सिरहाने कुछ ही दूर पर माई को जमीन पर लिटाया गया था। उन्हें सफेद कपड़ा ओढ़ाया गया था। नाक और कान में रूई डाली गई थी। अम्मा माई को पकड़ के जोर-जोर से रो रही थी। घर और पास-पड़ोस की औरतें भी आस-पास बैठी थी। दुआर पर गाँव के कुछ लोग खड़े थे। पापा घर की एक छुही पर टेक लिए मायूस बैठे थे। अचानक मैं धक्क सा रह गया । मेरे दिमाग ने गवाह दिया कि माई चली गयी। माई का निहारता हुआ चेहरा मेरी आँखों के सामने नाचने लगा। मन हुआ कि रात ही की तरह फिर से अपना मुंह चादर में ढक लूँ। इतना अफ़सोस आजतक मुझे अपनी किसी गलती पर नहीं हुआ, जितना उस समय हो रहा था। रात को शायद माई मुझसे फिर से बात करना चाहती थी मगर मेरी नादानी ने मुझे आखिरी समय में उनसे दूर कर दिया था। आज भी उस दिन को याद करके खुद को दोषी सा महसूस करने लगता हूँ।
Saturday, September 24, 2016
पुरखों की याद में
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