बड़े शहरों की चकाचौध भरी जिंदगी बेशक हमें कई तरह के भौतिक सुख देती है लेकिन उसी अनुपात में दुनिया की जीवंतता से भी दूर करती हैं। हाल ही में जब एक दिन नौकरी पाने की जद्दोजहद से निकलने का मौका मिला तो इस पहलू पर थोड़ा ज्यादा गौर कर सका । यूँ तो दिल्ली अपने आप में विविधताओं के केंद्र के रूप में ही निखरती है। लेकिन यहां के एकाध ठिकाने इसी विविधता को कलात्मक शक्ल देते हैं। ऐसी ही खुशनुमा और गुलजार जगहों में से एक है कनाड प्लेस, जहां न सिर्फ स्थानीय लोगों, बल्कि देशी-विदेशी पर्यटकों का जमावड़ा हर वक्त लगा रहता है। बिलकुल मेरे याद शहर इलाहाबाद की तरह चौड़ी सड़कें, मोड़ पर कुछ गुमटियां जिनके ओट में खड़े होकर बेफिक्री के कुछ कस लिए जा सकते है।
मुझे अच्छी तरह याद है जब मुझे दिल्ली आने के लिए ट्रेन पकड़नी थी। ट्रेन रात दस बजे की थी और अपना शहर छोड़ने की उदासी मेरे मुझे सुबह से ही झकझोर रही थी। जी चाहता किसी फिल्म की तरह मैं चन्द घंटे में पूरे शहर के चक्कर काट आऊं। कभी बालसन चौराहा तो कभी सुभाष चौराहा, यूनिवर्सिटी रोड, लक्ष्मी चौराहा, बैंक रोड। एक-एक चाय की चुस्की, एक-एक कस आँखों के सामने घूम रहा था। शाम के छः बजते ही जैसे दिल की धड़कन तेज होने लगी, मुट्ठी में भरे रेत की तरह सब छूटता महसूस हो रहा था मुझसे रहा नहीं गया। मैंने अनंत से कहा हम चाय पीने बैंक रोड चलेंगे। थोड़ी ना नुकुर के सब निकल पड़े। शायद उसी वक्त मुझे ये एहसास हो चुका था ज़िन्दगी की भागदौड़ में ना जाने ये बेफिक्री फिर मिलेंगी भी या नहीं इसलिए लूट लो आखिरी वक्त में जितना लूट सको।
दरअसल कनाड प्लेस मेरे रूम से दफ्तर के रास्ते पर नहीं है, यह राजीव चौक मेट्रो स्टेशन के बाहर पड़ता है। मुझे यहां आने के लिए मेट्रो स्टेशन से बाहर निकलना पड़ता है। फिर भी मैं दफ्तर से लौटते वक्त अक्सर यहां उतर जाना पसंद करता हूँ। बाहर निकल कर उन्ही गुमटियों की ओट में कस लेते हुए मैं कुछ पल के लिए अपनी उसी दुनियां में लौट जाता हूँ।
Sunday, September 11, 2016
बेफिक्री के कस
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