परिंदे भी नहीं रहते पराये आशियानों में,
हमारी उम्र गुजरी है किराये के मकानों में।
किराये के मकान में बीत रही ज़िन्दगी से त्रस्त किसी शायर का यह शेर मेरी पसंददिदा लाइनों में से है। हालांकि मैं कुछ अतिआशावादी ख्याल का हूँ, मेरा मानना है कि मनहूशियत किसी जगह पर नहीं होती है ये तो इंसान के भीतर होती है। यदि आदमी खुसमिजाज है तो वो किसी भी जगह जाये माहौल को संजीदा बना ही लेता है। लेकिन ये तो रही एक तरह के ख्याल और असूलों की बात, दरअसल जब मैं उक्त शेर को इलैबरेट करता हूँ तो पाता हूँ कि शायर ने यूँ ही नहीं खुद को परिंदो से भी गया गुजरा लिखा है, उसने भी किराये के कमरे के तमाम दुखों को झेला होगा। कभी-कभी न तो जगह मनहूस होती है और ना ही आदमी बल्कि हालात मनहूस हो जातें हैं।
सच है परिंदे या तो तिनका - तिनका चुनकर अपना घर बना लेते हैं या फिर पेड़ पत्तियों के नीचे ज़िन्दगी काट लेते हैं, क्या करें उनके पास किराये के कमरे का विकल्प भी तो नही होता। और आदमी! आदमी अपनी बेबुनियादी जरूरतों को पूरा करने शहर की ओर भागता है और शहर पहुच कर शुरू करता है आशियाने की तलाश। फिर क्या आठ बाई दस के कमरे में भी एक दुनियां बस जाती है ।
दरअसल ये कमरे नहीं दरबे है दरबे। इस दरबे में नींद वीरान टापू में तब्दील हो जाती है और डरावने सपने आते हैं। मकान मालिक की शिकायतें और अपमान गले में नुकीले कंकड़ की तरह चुभते हुए छाती की तलछट में जमते रहते हैं। कभी तो मन में आता है, कहें ' जितने में तुम्हारा ये महल खड़ा है उससे बड़ा घूर लगा करता है हमारे घर। आलम ये है कि पूरी दिवार चाहे किलों से पटी हो लेकिन आप अपनी कोई प्यारी सी याद टांगने के लिए कील नहीं ठोक सकते। दीवार में किसी भी जगह से प्लास्टर झड़ रहा हो, उसके इकलौते और आखिरी ज़िम्मेदार आप ही हैं। अब क्योंकि आपकी आज़ादी भी आप ही की तरह निहत्थी है इसलिए आपकी छोटी-छोटी आज़ादी पर रोज हमले होंगे। किराये में कमरे न हुए जैसे कोई दुर्घटना हो, पल-पल घटती त्रासदी हो जैसे।
मुझे भी एक दशक हो रहे हैं घर छोड़े हुए, लम्बा अरसा इलाहाबाद में बीता इन दिनों दिल्ली में हूँ । हालात सब जगह एक जैसे ही हैं। यहां दिल्ली में कमरों के लिए ब्रोकरी एक चमका हुआ बिजनेस है। ब्रोकरों के हाथ में एप्पल के आई फोन और गले में मोटी सोने की चेन होती है और सुसज्जित बड़े दफ्तर। इन दफ्तरों के सामने किराये के कमरों के लिए बड़े - बड़े इश्तेहार लगे होते हैं। इश्तेहारों में लिखा होता है 'कमरे ही कमरे'। इन पर नजर पड़ती है तो अनायास ही मुंह से निकल पड़ता 'दरबे ही दरबे'।
Friday, September 16, 2016
दरबे ही दरबे
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