Friday, December 30, 2016

लव यू दिसम्बर


सुनो बे जालिम दिसम्बर ! तुम भी बुझते दिए की तरह खूब भभका मारे हो, स्साला तुम्हारे आते ही हजारों लप्रेक न्यूज फीड में भरभरा के आने लगे। तुम्हारी सर्द रातों ने खूब सारे पुरानी चोटों का दर्द उभार दिया ।
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बचपने से लेकर जवानी और फिर दर्द-ए-जुदाई से लेकर महखाने में डूबी शाम तक को तुम अपनी कोहरे की धुंध में साथ लिए उड़ते रहे । यादों का ऐसा पाला मारे हो न तुम कि आदमी अंगीठी-अलाव में घुस के बैठ जाए फिर भी ये ठिठुरन नहीं जाती।
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तुम ना... लियोनार्दो द विन्ची की मोनालिसा की तरह हो । मने आदमी तुमको जिस मूड़ में देखे वैसे ही दिख जाते हो ! आदमी खुस है तो तुम्हारी सुबह अलाव और अंगीठी की गर्माहट के साथ होती है और तुम्हारी दोपहर की गुनगुनी धूप शाम के अलाव जलने तक इस गर्माहट को कायम रखती है ।
और हमारी तरह मनहूस लोगों के लिए तो क्या जनवरी क्या दिसम्बर !
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तुम्ही ने सलमान को लांच करके हॉटनेस बढ़ा दी और तुम्ही ने दुनियां के सारे मनहुसों का हौसला अफ़जाई करने के लिए ग़ालिब को उतारा था। अपनी तरह के इकलौते हो बे तुम 'एकदम यूनिक' !
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सुन भाई अपनी तो फितरत है जाते हुए से दिल लगा लेने की.. प्यार हो गया तुमसे.. हर बार की तरह सच्चा वाला प्यार..! हर बार की तरह इजहार भी कर रहा हूँ खुल्लम-खुल्ला 'लव यू दिसम्बर' !
जाओ दोस्त तुम्हारे जाने पर आंसू नहीं बहाएंगे..! क्योंकि किसी अजीज ने कहा था कि ' जाते हुए को हस के विदा करना चाहिए ' ! मिस यू ब्रो 😘 💞

सूखा पेड़ और मैं

जैसे-जैसे रात गहरी होती जाती है, मेरे कमरे में सन्नाटा फैलता जाता है और बेसुध पड़े मेरे शरीर की सासें मुझे तूफान की सरसराहट सी सुनायी देने लगती है, दम घुटने लगता है तो मैं खुद को उठा कर इस भंवर से दूर फेंक देना चाहता हूँ... वहां जहाँ मुझे इस तूफान की सरसराहट भी न सुनायी दे।

बचा खुचा साहस जुटाकर बमुश्किल ही अपने पैरों पे खड़ा हो पाता हूं , लड़खड़ाते हुए किसी तरह किवाड़ की सांकल तक पहुँचता हूँ और किवाड़ खुलते ही सरपट भागता हूँ वहीं तालाब किनारे .... जहां एक सूखा पेड़ बिना शोर किये खड़ा है।

हालाँकि ये सूखा पेड़ मुझे मेरा आने वाला कल दिखाता है लेकिन मैं उसकी बीती हुयी घुटन को महसूस करता हूँ। आखिर क्यों उसने लपक के तालाब से पानी नहीं ले लिया जब वो सूख रहा था.. जबकि तालाब तो बिलकुल उसके पास था ! आखिर क्यों तालाब ने ही अपने किनारों से बगावत करके इसे सूखने से नहीं बचाया जबकि ये तालाब का सबसे प्यारा पेड़ था।

लम्बे अंतर्द्वंद के बाद भी मैं इन यक्ष प्रश्नों का जवाब नहीं ढूंढ पाता हूँ। लेकिन कयास लगाता हूँ , कि शायद इस सूखे पेड़ के पांव बधे हुए थे उसे तालाब तक जाने की मनाही थी। उसे लोगों ने तड़पते हुए सूख जाने दिया लेकिन तालाब तक ना जाने दिया। बिलकुल वैसे ही जैसे तुम्हारे इतना करीब होने के बावजूद मेरे पांव बधे हैं और मैं थोड़ा-थोड़ा तड़पकर रोज सूख रहा हूँ।

Monday, December 26, 2016

ये कैसा संशय है

ये कैसा संशय है ,
तुम हो या नहीं हो ?

अगर तुम हो तो तुम्हारे प्रेम की ,
सुखानुभूति क्यों नहीं है !
अगर तुम नहीं हो तो ,
क्यों नहीं हूँ इक पल भी बगैर तुम्हारे !

अगर तुम हो तो तुम्हारे होने का ,
मुझको गुमान क्यों नहीं है !
अगर तुम नहीं हो तो ,
क्यों ये उम्मीद है लौट आने की तुम्हारे !

अगर तुम हो तो मेरे पल-छिन,
क्यों बिखरे पड़े हैं अस्त-व्यस्त
अगर तुम नहीं हो तो ,
क्यों मेरा हर लम्हा सिमटा है तुममे!

अगर तुम हो तो मेरे दिन,
क्यों वीरान हैं किसी टापू से !
अगर तुम नहीं हो तो ,
क्यों मेरी रातें अब भी हैं आलिंगन में तुम्हारे !

अगर तुम हो तो मेरी कलम,
क्यों लिखती नहीं तुम्हारे श्रृंगार !
अगर तुम नहीं हो तो ,
क्यों मेरी कृतियों में है अब भी नाम तुम्हारा !

ये कैसा संशय है ,
तुम हो या नहीं हो ?

- शब्दभेदी

Saturday, December 17, 2016

सच्चा योद्धा

आज सुबह निकल पड़ा मैं
यादों के सफर में
खूब सारी धुंधली छवियां लिए
जो बहोत झकझोरने पर ही
समझ में आ रहीं थी...
एक धुंधली सी छवि बात कर रही थी मुझसे

उसने मुझे एक योद्धा से रूबरू करवाया,
जिसकी छवि भी बिलकुल धुंधली थी,
वो जो एक सन्तरी के तौर पर नियुक्त था
मैंने देखा वो योद्धा लड़ रहा था,
उन दुश्मनों से जो घुप्प अंधेरे से आ रहे थे,
मेरा वजूद मिटाने।

योद्धा भाव शून्य होकर लड़ रहा था
आस पास और भी बहुत लोग मूक खड़े थे
घावों से भरे होने के बावजूद
बिना रुके वो लड़े जा रहा था।

मेरा मन रो रहा था,
आँखे नम हो रही थी।
मैं महशूश कर रहा था,
उसके घावों से उभरते दर्द को..
नर्मदिल योद्धा दुआएं भी कर रहा था
दुआओं के एक-एक शब्द,
सफ्फाक चमक रहे थे
न ओझल होने वाली चमक लिए।

मैंने गुजारिश की..
'योद्धा की पहचान बता दो'
वो शख्स मेरी बातों को
नजरअंदाज करता रहा।
उसने मुझे एक और छवि दिखाई
जिसमें मैं योद्धा की
ऊँगली पकड़े खड़ा था।

उहापोह में बंधा हुआ मैं
भय से कांप रहा था
मैंने महशूश किया
योद्धा की दुआएं मुझे गोंद में
महफूज मुझे घर लिए जा रही थी
मैंने गुजारिश की ' कौन है ये योद्धा '
मैंने जब आँखे खोली तो.
बेतहासा मेरे आंशू निकल रहे थे
'अम्मां ' ये तुम थी..
...............................................

लेरी क्लार्क की कविता 'द वैरियर' का यह भावानुवाद मेरे जीवन की सच्ची योद्धा 'अम्माँ' तुमको समर्पित
तुम्हारे समर्पण, मेरे प्रति तुम्हारे विश्वास मुझे एहसास कराते हैं कि तुमसे बेहतर योद्धा मैंने अपने जीवन में नहीं देखा और ना ही देखूंगा..
मेरे लिए इस दुनिया में कहीं भी अगर ईश्वर शेष है तो तुम्हारे प्यार और तुम्हारी ममत्व में।

Tuesday, December 13, 2016

कयामत की रात

कयामत की रात होती है,
वो रात जब
खुदा हमारे कर्मों का हिसाब लगाता है
और नसीं करता है हमें,
जन्नत या दोज़ख!

तुम्हारे ब्याह वाली रात भी,
इससे कम नहीं थी
हिसाब लगा रहा था मैं,
पाने और खोने का ,
जन्नत या दोज़ख!

काफिर कहतें हैं मुझको,
मैं मानता नहीं खुदाई,
लेकिन हिसाब तो होगा
साथ और तन्हाई दोनों का
जन्नत या दोज़ख!

लगभग एक जैसा होता,
मेरे लिए तुमको पाना और खोना,
भरा पड़ा रहता मैं
तब प्यार अब गुबार,
जन्नत या दोज़ख!

अब समझ पाया हूं,
तुमको दोष देना भूल थी,
क्या फरक पड़ता है,
बावफ़ा हो या बेवफा,
जन्नत या दोजख !

- शब्दभेदी

Thursday, December 1, 2016

लोक-लाज

बिगड़े हो, इतने बर्बाद हुए बैठे हो
उम्र हुई, अब सुधर क्यों नही जाते।

हाथ खाली है तो क्या हुआ,
लौटकर सीधे घर क्यों नहीं जाते।

आईने से इतना मुंह चुराते हो,
रूह से थोड़े संवर क्यों नहीं जाते।

फोड़ते हो ठीकरा हालात पे काहें?
खुदको खोजने दरबदर क्यों नहीं जाते।

गांव से इतनी शिकायत है तुमको,
तो मुड़ के एक बार शहर क्यों नहीं जाते।

लोक-लाज धो कर पी गये हो,
बेशरम कहीं के, मर क्यों नहीं जाते।

शब्दभेदी जानते हो दुनिया गोल है,
बेवजह भागते हो, ठहर क्यों नहीं जाते।

नासमझ

ना मिलूं तुम्हे जश्न-ओ-बहार में शायद,
इन दिनों ग़म का खजाना ढूंढता हूँ।

अव्वल तो मैं बचता रहा नाजनीनो से मगर,
अब तो खुद से भी बचने का बहाना ढूंढता  हूँ।

कहां गए वो दिन, वो चैन-ओ-सुकूँ कहां गये,
भरे दिन, नामुकम्मल नीदों में ऊंघता हूँ।

मिल जाऊं कहीं तो मुझे भी इत्तेला करना,
इक अरसे से मैं खुद, खुद ही को ढूंढता हूँ।

शून्य में भी खोजते हो सम्भावनाएं नासमझ,
'शब्दभेदी' कौन होगा तुझ सा दीवाना ढूंढता हूँ।