कयामत की रात होती है,
वो रात जब
खुदा हमारे कर्मों का हिसाब लगाता है
और नसीं करता है हमें,
जन्नत या दोज़ख!
तुम्हारे ब्याह वाली रात भी,
इससे कम नहीं थी
हिसाब लगा रहा था मैं,
पाने और खोने का ,
जन्नत या दोज़ख!
काफिर कहतें हैं मुझको,
मैं मानता नहीं खुदाई,
लेकिन हिसाब तो होगा
साथ और तन्हाई दोनों का
जन्नत या दोज़ख!
लगभग एक जैसा होता,
मेरे लिए तुमको पाना और खोना,
भरा पड़ा रहता मैं
तब प्यार अब गुबार,
जन्नत या दोज़ख!
अब समझ पाया हूं,
तुमको दोष देना भूल थी,
क्या फरक पड़ता है,
बावफ़ा हो या बेवफा,
जन्नत या दोजख !
- शब्दभेदी
No comments:
Post a Comment