जैसे-जैसे रात गहरी होती जाती है, मेरे कमरे में सन्नाटा फैलता जाता है और बेसुध पड़े मेरे शरीर की सासें मुझे तूफान की सरसराहट सी सुनायी देने लगती है, दम घुटने लगता है तो मैं खुद को उठा कर इस भंवर से दूर फेंक देना चाहता हूँ... वहां जहाँ मुझे इस तूफान की सरसराहट भी न सुनायी दे।
बचा खुचा साहस जुटाकर बमुश्किल ही अपने पैरों पे खड़ा हो पाता हूं , लड़खड़ाते हुए किसी तरह किवाड़ की सांकल तक पहुँचता हूँ और किवाड़ खुलते ही सरपट भागता हूँ वहीं तालाब किनारे .... जहां एक सूखा पेड़ बिना शोर किये खड़ा है।
हालाँकि ये सूखा पेड़ मुझे मेरा आने वाला कल दिखाता है लेकिन मैं उसकी बीती हुयी घुटन को महसूस करता हूँ। आखिर क्यों उसने लपक के तालाब से पानी नहीं ले लिया जब वो सूख रहा था.. जबकि तालाब तो बिलकुल उसके पास था ! आखिर क्यों तालाब ने ही अपने किनारों से बगावत करके इसे सूखने से नहीं बचाया जबकि ये तालाब का सबसे प्यारा पेड़ था।
लम्बे अंतर्द्वंद के बाद भी मैं इन यक्ष प्रश्नों का जवाब नहीं ढूंढ पाता हूँ। लेकिन कयास लगाता हूँ , कि शायद इस सूखे पेड़ के पांव बधे हुए थे उसे तालाब तक जाने की मनाही थी। उसे लोगों ने तड़पते हुए सूख जाने दिया लेकिन तालाब तक ना जाने दिया। बिलकुल वैसे ही जैसे तुम्हारे इतना करीब होने के बावजूद मेरे पांव बधे हैं और मैं थोड़ा-थोड़ा तड़पकर रोज सूख रहा हूँ।
ये वो हालात है जो हर शख्स को शायद कभी न कभी महसूस हुए हो
ReplyDeleteजज्बातों के झंझावत को शब्दों की मर्यादा से बांधना लेखक या कवि की ताकत होती है और ये आपको बखूबी आता है
बहुत बहुत खूबसूरत