Thursday, December 1, 2016

लोक-लाज

बिगड़े हो, इतने बर्बाद हुए बैठे हो
उम्र हुई, अब सुधर क्यों नही जाते।

हाथ खाली है तो क्या हुआ,
लौटकर सीधे घर क्यों नहीं जाते।

आईने से इतना मुंह चुराते हो,
रूह से थोड़े संवर क्यों नहीं जाते।

फोड़ते हो ठीकरा हालात पे काहें?
खुदको खोजने दरबदर क्यों नहीं जाते।

गांव से इतनी शिकायत है तुमको,
तो मुड़ के एक बार शहर क्यों नहीं जाते।

लोक-लाज धो कर पी गये हो,
बेशरम कहीं के, मर क्यों नहीं जाते।

शब्दभेदी जानते हो दुनिया गोल है,
बेवजह भागते हो, ठहर क्यों नहीं जाते।

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