Wednesday, August 16, 2017

तिरंगा और हम

'कभी अकेले छूट जाओ और सत्य साथ हो तो आगे बढ़ने से न घबराना।'
'असहयोग आंदोलन' का दौर था...
लंदन में अपने हुनर का डंका पीट रहे नेता जी सुभाष चन्द्र बोस और रघुपति सहाय (फिराक़ गोरखपुरी) ने तय किया यही वक़्त है अपनी मातृभूमि का कर्ज अता करने का। महात्मा गांधी को आदर्श मान कर विदेश में 'ICS' अधिकारी का पद ठुकराकर चले आये।
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गांधी जी ने नेता जी को क्रांति का मूल मंत्र दिया 'कभी अकेले छूट जाओ और सत्य साथ हो तो आगे बढ़ने से न घबराना'। फिर क्या.. नेता जी ने राष्ट्र की आज़ादी को ही सत्य माना और इस राह में आने वाली हर बाधा का काफूर समझा।
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एक वक्त ऐसा भी आया कि खुद उनके गुरू महात्मा गांधी इस राह में आये, उन्होंने हाथ जोड़कर माफी मांगी और कांग्रेस के अध्यक्ष पद का त्याग कर चल दिये लड़ाई को अपने आदर्शों पर लड़ने और त्याग के इसी सिलसिले में उन्हें मातृभूमि की मिट्टी तक नसीब न हुआ।
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आशय यह है कि तिरंगे के नीचे खड़े होकर अलग-अलग विचारधारा अलग-अलग सोच के क्रांतिकारी अपने उर में आज़ादी का दीप जलाए हुए थे। तिरंगा हमेशा से ब्रिटिश तानाशाही और दमनकारी नीतियों के खिलाफ लड़ाई का प्रतीक रहा।
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आज की सरकारें कितनी भी तानाशाह, कितनी भी दमनकारी क्यों न हो जाये और हमें राष्ट्रप्रेम के मार्ग पर नेताजी की तरह गद्दार ही क्यों न घोषित कर दिया जाय। तिरंगे से प्रेम हमें बनाये रखना चाहिए। सर्वहारा समाज के लिए लड़ने वाले डॉ. भीमराव अंबेडकर ने भी तिरंगे के नीचे नीति का निर्माण किया।
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मौजूदा परिस्थितियों पर हम सरकार पर खिन्न रहें और लड़ें उसके खिलाफ, लेकिन ध्वज और ध्वजारोहण का विरोध अतार्किक है। हम दुःखी हैं तो आइए सब मिलकर तिरंगा फहराएं और फहराने के बाद शोक में उसे झुकाकर श्रद्धांजलि दें उन मरहूमों को। इसी बहाने तिरंगे के नीचे बैठकर चर्चा करें इस दमन से पार पाने का।
लेकिन इसका बहिष्कार करना तो महज अंधी क्रिया की अंधी प्रतिक्रिया कहलायेगी और कुछ भी नहीं।

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