Sunday, August 6, 2017

कृष्ण सा सामर्थ्य

रक्षाबंधन विशेष
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पृष्ठभूमि:
नब्बे का दशक, भारतीय टेलीविजन और धारावाहिक का स्वर्ण काल था। हर घर में तय समय पर रामायण और महाभारत जैसे धारावाहिक चला दिए जाते। घर के काम काज से निपटकर बड़े-बुजुर्ग, महिलाएं-बच्चे सब टीवी के सामने डट जाते। एपिसोड के दो अनुभागों के बीच में जब कोमर्सियल ऐड चलते तो घर के बड़े दिखाए गए अनुभाग के प्रसंग पर चर्चा करते और छोटे कहानी के सार को समझने की कोशिश करते।
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कहानी:
एक रात बड़ी बहन रेखा छोटे भाई-बहन गुड्डू और किरन को जल्दी-जल्दी से खाना खाकर बर्तन देने को कह रही थी ताकि जल्दी काम खतम करके, समय पर ‘महाभारत’ देखने पहुंच सके। रेखा ने चिढ़ते हुए कहा..
‘गुड्डू तुझे ही देर होती है, जल्दी कर वरना आज का एपिसोड छूट जाएगा। आज द्रोपदी चीर हरण का एपिसोड आएगा।’

जल्दी से खाना खतम करके गुड्डू ने बर्तन दीदी को दिया और मुंह धुलकर फिर से दीदी के पास पहुंच गया.. बर्तन रखने व्यस्त रेखा से उसने पूछा ‘दीदी… आज के एपिसोड में क्या होगा!’

हाथ पोंछकर सात साल के नन्हे गुड्डू के गाल पर चपत लगाते हुए दीदी ने उसे गोदी में उठाया और बोली..
‘आज एक भाई अपने बहन की लाज बचाएगा।’

नन्हें गुड्डू को कुछ समझ तो नहीं आया था मगर दीदी ने आज बहुत दिनों बाद उसे गोंद में उठाया था तो वो इसमें ही बहुत खुश था।

अपने चिरपरिचित अंदाज में ‘महा….भा..रत’ के उदघोष के साथ एपिसोड शुरू होता है। सबके मुंह खुले हुए और नजरें टीवी पर गड़ी रहती है। मामा सकुनी के कुटिल चाल से सबकुछ हारने के बाद पांडव द्रोपदी को भी हार जाते हैं।

दूसरे अनुभाग में दुःशासन कुरु वंश की कुलवधू द्रोपदी को बाल से खींचकर सभा में लाकर पटक देता है। द्रोपदी रो-रोकर पितामह भीष्म, कुलगुरू द्रोण, काका विदुर और महाराज के साथ-साथ पूरी सभा के समक्ष अपने लाज की भीख मांगती रहती है।

द्रोपदी की असहनीय सीत्कार को देखकर टीवी के सामने बैठे सभी की आंखें नम हो रही होती हैं। मदान्ध दुर्योधन, दुःशासन से द्रोपदी को वस्त्रहीन करने को कहता है।

दीदी की गोंद में सिर रखकर एकटक टीवी देख रहा गुड्डू रह-रहकर दीदी के दुपट्टे में आसूं पोछ लेता।

जैसे ही दुःशासन भरी सभा में द्रोपदी कि सारी का एक सिरा पकड़कर खींचना शुरू करता है दीदी की आंखों से आंसू की एक बूंद गुड्डू के गाल ढरक जाती है। दीदी को भी रोता जान गुड्डू के सब्र का बांध टूट पड़ता है और वो फफक-फफक कर रो पड़ता है।

रुआँधी सी आवाज में गुड्डू, रेखा की ओर देखकर पूछता है ‘दीदी अब क्या होगा..?’
गुड्डू के सिर पर हाथ फेरकर दीदी भर्राई आवाज में कहती है
‘अब एक भाई अपनी बहन की लाज बचाने आएगा’
इतना कहते हुए छोटे भाई को भींचकर रेखा भी रो पड़ती है।

द्रोपदी के आवाहन पर उनके भाई द्वारिकाधीश कृष्ण लाज बचाने प्रकट होते हैं और बहन का अपमान होने से बचाते हैं।

उसी दिन मन ही मन दोनों बहनें रेखा और किरन छोटे भाई गुड्डू को मोहन मान लेती हैं और गुड्डू भी आगे चलकर चक्रधारी वासुदेव के समान सामर्थ्य पाने की लालसा मन में पाल लेता है, ताकि किसी भी स्थिति में वो अपनी बहनों की गरिमा की रक्षा कर सके।

आज का एपिसोड खतम होता है और सभी के चेहरे पर विजित मुस्कान फैल जाती है।
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तबसे गुड्डू अक्सर ज़िद करके दीदी से उस कहानी को सुनता और हरबार कहानी में कृष्ण के आगमन पर उनके सामर्थ्य को पाने की लालसा को सिंचित करता। दीदी भी हरबार कहानी के अंत में खुश हो चुके गुड्डू के सिर पर हाथ फेरकर उसे मोहन कहती।

वक़्त बीता.. बाऊजी कामकाज में व्यस्त रहते.. दो बड़ी बहने और अम्मा के बीच या यूं कह लो कि तीन माओं की ममता में पलकर गुड्डू बड़ा होता है। तीन स्त्री के रहन-सहन, मान-अभिमान, दया-दान और सोच-समझ के बीच पले गुड्डू का व्यक्तित्व पितृसत्तात्मक समाज से बिल्कुल परे विकसित होता है।

गुड्डू दसवीं में पहुंचा तो बड़ी बहन रेखा का ब्याह होता है। बिदाई के वक़्त जाते-जाते गुड्डू से लिपटकर रोते हुए रेखा कह जाती है ‘मेरे मोहन बने रहना’।
गुड्डू को भी बारहवीं के बाद आगे की पढ़ाई के लिए शहर जाना पड़ता है। स्नातक के अंतिम वर्ष में छोटी दीदी Kiran का भी ब्याह हो जाता है।

समयकाल ने तीनों भाई बहनों को दूर भले कर दिया हो लेकिन दिन-ब-दिन उनका परस्पर स्नेह बढ़ता ही रहा.. बहनों को अब अपने गुड्डू के भविष्य की चिंता खूब सताती और भाई भी अक्सर फोन पर बात करते हुए बहनों की चिंता से परेशान हो उठता। बहनें अपनी गृहस्थी में व्यस्त हो गयीं और भाई सुदर्शनधारी के समान सामर्थ्य (ऊँची शिक्षा और नौकरी) जुटाने में लग गया।

एक रात गुड्डू छात्रावास की छत पर टहल रहा था कि छोटी दीदी किरन का फोन आता है। दो बार फोन पर केवल सिसकियां सुनाई दी और फोन कट जाता है। गुड्डू का मन विचलित हो उठा। वह बार-बार फोन लगाता रहा कि जान सके क्या बात हो गयी।

बीसों बार फोन लगाने के बाद जब फोन रिसीव हुआ तो उधर से किरन के रोने की आवाज आई और रह-रहकर कहना

‘जब मैं कोई काम नहीं करती तो पिछले तीन सालों से यह घर कैसे चल रहा है, डेढ़ महीने से मेरी तबियत खराब है किसी को इस बात की परवाह नहीं है घर का हर आदमी सिर्फ मेरा काम गिनता रहता है।’

गुड्डू शांत होकर सब सुन रहा था उसका मन भारी हुआ जाता था..
लम्बी सिसकियों के साथ फोन पर फिर किरन की आवाज आई..
‘मुझे ब्याह कर ले आये और यहां छोड़कर खुद परदेश चले गए, मैं कुछ नहीं बोली और यह मान कर दिन-रात सबकी सेवा करती रही कि यही मेरा परिवार है.. यही मेरा धर्म है।’

सामने फिर चुप्पी हुई तो गुड्डू बोला ‘क्या हुआ तू मुझे बता?’
भाई के पूछने पर किरन आपा खोकर फिर रो पड़ी और बोली

‘शादी के बाद से ही मैंने खेत-बारी, चौका-बर्तन, गाय-गोरू सब किया… मेरे हाथों की मेहंदी ठीक से छूटी भी नहीं थी कि मैंने हसियां उठाकर गेंहूँ काटे। इस घर की बहू बनकर वो सब काम किया जिसे अपने बाऊजी के घर बेटी बनकर मैंने कभी हाथ तक नहीं लगाया था।’

फिर चुप्पी.. गुड्डू सोचने लगा सच ही तो है वह जब भी किरन के घर गया था उसने देखा था कि जिस बहन के लिए कभी एक ग्लास पानी देना भी पहाड़ होता था वो अपने गृहस्थी में इस तरह तल्लीन दिखी जैसे कई सालों के अनुभव हो उसे।

किरन एक बार फिर फफक पड़ी.....
‘मैं आज भी यह सब करने को नकार नहीं रही.. मुझे बुखार आता है, थकान जल्दी लग जाती है। मैं तो सिर्फ इलाज करवाने को और थोड़े आराम की बात कर रही हूं।’

गुड्डू से बर्दास्त न हुआ उसने झल्लाते हुए कहा...
‘तू अपना सामान तैयार रख मैं सुबह तुझे लेने आ रहा हूं।’

गुड्डू के जीवन की सबसे भारी रात किसी तरह कटी। सुबह उठकर उसने सबसे पहले हैदराबाद जीजा को फोन लगाया और उनसे उनकी राय जाननी चाही। फिर अम्मा बाऊजी को फोन लगाया उनसे भी पूछा क्या करना चाहिए। सभी समाज के बंधनों में बंधे हुए थे और किसी के पास कोई जवाब न था।

जीजा अपने पिता जी और बड़े भाई की इच्छा के खिलाफ जाकर यह नहीं कह सकते थे कि तुम किरन को घर ले जाओ और इधर गुड्डू के अम्मा व बाऊजी इस धर्म संकट में थे कि बेटी को उसके घर वालों की अनुमति के बिना ले आना उचित है अथवा नहीं!

गुड्डू के लिए यह बिल्कुल वही अवस्था थी जब द्रोपदी की विपदा के वक़्त हस्तिनापुर की राजसभा में मौन पसरा था। लेकिन वह जानता था कि उसमें कृष्ण जैसा सामर्थ्य नहीं है। गुड्डू ने बस पकड़ी और रास्ते भर यही सोचता रहा कि इस कहानी में वो सबसे छोटा किरदार है, आज उसके विवेक के सारे रास्ते बंद थे।

बस में बैठे हुए उसने आंखें बंद की तो बड़ी दीदी के बिदाई वक़्त कहे शब्द उसके कानों में गूंज रहे थे...
‘मेरे मोहन बने रहना’

‘द्रोपदी चीरहरण’ के उस एपिसोड को सोचते हुए उसकी आंख लग गयी। वह जगा तो उसका स्टॉप आने वाला था। उसने किरन को फोन किया तैयार रहना मैं कुछ ही देर में पहुँच जाऊंगा।

बस से उतर कर बहन के गांव जाने के लिए उसने ऑटो बुक किया और उसके घर पहुंचते ही सबने उसे घेर लिया। किरन के बाबू (ससुर जी) ने गुड्डू को धमकी भरे लहजे में कहा....
‘गुड्डू वो मेरे घर की बहू है उसे इस तरह से मेरी अनुमति के खिलाफ ले जाना ठीक नहीं होगा।’

गुड्डू के अंदर संशय था कि वो कुछ गलत तो नहीं कर रहा लेकिन रात में फोन पर सुनी बहन की सिसकियां उसे याद आ गयी।

उसने शिकायत भरे लहजे में कहा
‘आप मेरे बाऊजी के समान हैं मैं आपका सम्मान करता हूँ लेकिन आखिर यह नौबत आई ही क्यों.. मैं अपनी बहन को ले जा रहा हूँ जो कुछ भी सही गलत कल तय होगा, उससे पहले आज उसका स्वास्थ्य और उसकी गरिमा है।’

जितनी मुश्किल बहन को हो रही थी बिना अनुमति के उस घर की चौखट को लांघने में उससे कहीं ज्यादा मुश्किल गुड्डू के लिए भी थी बड़ों की बात को टालने में, जो कि उसने आज तक नहीं किया था।

आसपास के लोग भी किरन के ससुर की ऊंची आवाज सुनकर इकट्ठा हो गए थे। गर्दन जमीन में गड़ाए हुए वह बहन के कमरे में गया। एक हाथ में उसका सामान और दूसरे हाथ में भांजी को गोंद में लिए बाहर निकला और बहन को लेकर घर की ओर निकल पड़ा।

रास्ते भर गुड्डू भांजी को सीने से लगाये दुलारता रहा, लेकिन भाई-बहन ने एक-दूसरे से बात नहीं कि.. घर पहुंचते ही किरन अपने इस दुस्साहस की स्थिति और कारण को बताते हुए अम्मा से लिपटकर रो पड़ी। अम्मा उसे चुप कराते हुए बोली ‘तू चिंता मत कर तेरा भाई बड़ा हो गया है अब.. वो सब देख लेगा’

‘वो सब देख लेगा…’ अम्मा के इस वाक्य ने गुड्डू को कृष्ण के सामर्थ्य की अनुभूति कराई। उसने फोन लगाकर रेखा दीदी को सारी बात बताई।

गुड्डू दुआर पर पड़ी खटिया पर लेटकर आसमान की ओर तकने लगा। उसके चेहरे पर आज फिर वही विजित मुस्कान थी जो उस दिन ‘द्रोपदी चीरहरण’ वाले एपिसोड के अंत में द्रोपदी की लाज बचने पर सभी के चेहरे पर थी।
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- शब्दभेदी
रक्षाबंधन के इस पर्व सभी बहनों को उपहार स्वरूप सादर समर्पित 🙏
और भाईयों को कृष्णा सा सामर्थ्य जुटाने के लिए शुभकामनाएं 👍

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