सुनो जाना!
अभी-अभी तुम्हें स्वपन में देखा
हां दिवा नींद के स्वपन में...
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घनघोर घटा छाई हुई है
गरज रहे हैं बादल खूब
लौट रहा हूँ विश्वविद्यालय से
अपनी कॉलोनी में पहुंचा हूं।
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कुछ भारी बूंदें गिरने लगी
पड़ने लगी पट-पट मुझपर
कि भीग न जाऊं भागा
मैं दौड़ा की बच जाऊं।
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ज्यों ही मुड़ा अपने घर को
देखा तुम्हें मंदिर के अहाते में
बढ़ते हुए कदम ठहरे और
वहम बढ़ने लगा तेजी से।
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नहीं-नहीं ये स्वपन ही होगा
फिर सोचा ये स्वपन ही सही
आसमान की बिजली चमकी
निश्चिंत हुआ कि स्वपन नहीं है।
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काली घटा से बाल तुम्हारे
मन के आसमान में छाने लगे
आंखों की चमक ऐसी की
बिजली की चमक भी फीकी थी।
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बाहों को अपनी खोलकर
जी रही थी तुम बरसात को
और मैं निहार रहा हूँ तुम्हें
हमेशा की तरह भावशून्य!
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सोचा कि संशय दूर करूँ
तुम्हारे करीब पहुंचकर
जैसे ही तुम्हें छूना चाहा
बादल गरजे और नींद खुल गयी।
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यकीन करो मैं सच कहता
हां स्वपन ही था लेकिन..
सर से पांव तक भीग चुका हूं
तुम्हारी यादों की बरसात में।
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अभी-अभी तुम्हें स्वपन में देखा
हां जाना!
दिवा नींद के स्वपन में...
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शब्दभेदी
Wednesday, August 9, 2017
दिवास्वप्न
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