Saturday, August 19, 2017

जिक्र-ए-यार

जिक्र खुद ही कर रहा हूँ पर बताने का मन नहीं है,
हां सांस तो लेता हूँ मगर चलती ये धड़कन नहीं है।
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बहुत देखे हैं ऐसे मैंने मुश्किल-ए-हालात लेकिन,
इक वो चला क्या गया, लगता है जीवन नहीं है।
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उसके बाद उस शहर में तो कई दफे जाना हुआ,
ना रहीं वो महफिलें और अब वो अंजुमन नहीं है।
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हाय बांधा ज़िद ने मेरी उस परिंदे को कैद में,
सोचता हूँ उड़ने दूँ इसको इश्क़ कोई बंधन नहीं है।
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तुम्हीं कहो बैठे रहें कब तक यादों का परबत लिए,
यार उम्र भी तो हो गयी अब कोई बांकपन नहीं है।
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खैर! तुम अपनी सुनाओ इन्हें उलझा ही रहने दो,
ज़िन्दगी की पेंच हैं, तेरे जुल्फ की उलझन नहीं है।
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यूँ तो है जिक्र मेरा भी यहां के शायरों में लेकिन,
दर्दे दिल कहता हूं मुझमें शायरी का फन नहीं है।
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- शब्दभेदी

1 comment:

  1. कमाल की प्रस्तुति
    बहुत खूब लिखा है

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