Monday, October 31, 2016

हसरतों की दुकान

एक रोज तंग आकर मैंने
हसरतों को बड़ी पोटली में बांधकर
बेचने चल दिया बाजार में
खोली पोटली, बैठा मैं अच्छा स्थान देखकर

लोग खूब इकट्ठा हुए
बाज़ार में नई दूकान देखकर
फिर तो खुसी का ठिकाना न रहा
फूला न समाया मैं हसरतों के तलबगार देखकर

यूँ तो औने पौने में बेचना था
भाव बढ़ा दिए मैंने इतने खरीदार देखकर
उलटे-पलटे, पर भाये न किसी को
मायूस था, हैरान था ये अलमजार देखकर

हसरतें कच्ची हैं, बेरंग हैं
आये गये सभी मेरा सामान देखकर
मुंह बिचकाए, आजमाए हर कोई
हुआ अचंभा, दंग रह गया मैं ये बाजार देखकर।

हो गयी शाम, बाजार बंद हो गयी
सब लौटने लगे अपना -अपना सामान बेचकर।
हसरतें तो बिकने से रही, बोझ और बढ़ गया
लौटा मैं मायूसियों की एक और पोटली बांधकर।

कोने में खड़ा फटेहाल, घूरे है सुबह से
उठते ही बुलाया उसने मुझे आवाज देकर।
हसरतें तेरी है इन्हें तू ही रख 'शब्दभेदी,
मैंने लगाई थी दुकान, हो गया मैं भी कंगाल बेचकर।

Sunday, October 30, 2016

जश्न-ए-चराग

वाई-फाई रूटर लगा है, 6जीबीपीएस इंटरनेट है। जो भी क्लिक करो फटाक से खुल जाता है। मतलब के दिवाली का भरपूर जश्न चल रहा है। कल शाम से ही शुभकामनाओं का लेनदेन चल रहा है, और देर रात तक ये सिलसिला चलता रहा।

सुबह देर से हुयी। फ्रेश-व्रेश हो के मोबाइल उठा लिया। दिवाली के जश्न में दो बजे गये। जब आँखे थक गयी तो बाकी चीजों पर भी ध्यान गया। इलाहाबाद जाने से पहले कुछ गंदगियां छोड़ गया था और कुछ गंदगियां ले कर भी आया था। अरे यार गंदे कपडों की बात कर रहा हूँ।

फिर क्या बाजीराव उठा, रूम के कोने-कोने में लगे मकड़ी के जालों को साफ किया , झाड़ू लगाया , किचन में दो दिनों से पड़े गंदे बर्तनों को साफ़ किया। लगभग पूरे कपड़े धुले फिर नहाया। अपनी चपलता से बाजीराव ने इसी बीच दाल चावल भी पका लिया। भोजन भी हो गया।

कल वापस लौटते वक्त बाजार से चार मोमबत्तियां लाया था। फ़्लैट के चारो कोने जला दिया। अब फिर मोबाइल ले कर बैठ गया हूँ। मोबाइल की स्क्रीन पर भी दिवाली एनिमेशन थीम लगा दिया। अब फिर से जुट गया हूँ। फेसबुक-व्हाट्सएप की जश्न-ए-चराग में।

Sunday, October 23, 2016

यादों का तूफाँ

जर्रे-जर्रे में उसका निशाँ जहां नहीं होता,
मेरे लिए वो मंजर दुनिया-जहाँ नहीं होता!

मैं जाऊं कहीं भी, रहता हूँ कहीं भी,
ये बेसबब यादों का तूफाँ कहाँ नही होता।

हो तन्हाई का सहरा या शहर-ए-इश्क़ हो,
सिर पे मेरे कभी कहीं आसमां नहीं होता।

ये गम-ए-उल्फत, ये गम-ए-आशिकी,
मोहब्बत में कुछ भी खामखां नही होता।

बेशक होगा लाख काबिल अपना 'शब्दभेदी'
इश्क का मारा किसी काम का नही होता।

Sunday, October 16, 2016

कैसे कहें ?

बुझते चराग को आफ़ताब, कैसे कहें?
हकीकत जो है उसे ख्वाब, कैसे कहें?
.
गिला करते नहीं, शिकवा है नहीं तुमको
है हमसे इश्क बेहिसाब? कैसे कहें?
.
ऐतबार, इकरार, बेइंतहां प्यार का सफर
मुकम्मल होंगे सारे ख्वाब, कैसे कहें?
.
बहकते हैं कदम, लड़खड़ाती है जुबान
नशा करते नहीं जनाब , कैसे कहें?
.
हो नेक दिल, भले इंसा हो 'शब्दभेदी'
मगर हो सबसे लाजवाब, कैसे कहें?

Thursday, October 13, 2016

कभी - कभी मैं सोचता हूँ

कभी - कभी मैं सोचता हूँ
मैं दौड़ रहा हूँ,
किसी रेस में दौड़ते
घोड़े की तरह।
या फिर...
दौड़ रहा हूँ,
पटरियों पर दौड़ती
रेलगाड़ियों की तरह।

कभी - कभी मैं सोचता हूँ
मैं ठहरा हुआ हूँ,
शहर की भगदड़ निहारते
किसी बस अड्डे की तरह।
या फिर...
ठहरा हुआ हूँ,
अरसे से ठहरे,
नुक्कड़ के बरगद की तरह।

कभी - कभी मैं सोचता हूँ
मैं उलझा हुआ हूँ,
चाल दर चाल उलझते,
शतरंज के मोहरों की तरह।
या फिर...
उलझा हुआ हूँ,
कई दिनों से उलझे पड़े
ऊन के गोले की तरह।

कभी - कभी मैं सोचता हूँ
मैं झूम रहा हूँ,
चैत की गर्म हवाओं में झूमती
गेहूं की बालियों की तरह।
या फिर...
झूम रहा हूँ,
बैलों के गले में झूमती
घण्टियों की तरह।

कभी - कभी मैं सोचता हूँ
मैं तप रहा हूँ,
दोपहर की तेज धूप में तपती
मिट्टी की सड़कों की तरह।
या फिर...
तप रहा हूँ,
लोहार की भट्ठी में तपते
लोहे की तरह।

कभी - कभी मैं सोचता हूँ
मैं सर्द पड़ा हूँ,
बारिसों में भीगे खड़े
किसी खम्भे की तरह।
या फिर...
सर्द पड़ा हूँ,
किसी पार्क की सर्द पड़े
लोहे की बेंच की तरह।

कभी - कभी मैं सोचता हूँ...!

- रजनीश 'शब्दभेदी'

सितारों के आगे

लिखना है तो लिख डालो सोचते क्या हो,
ख्वाहिशें हैं, कोई विवादित बयान थोड़ी है।

खरचो जितना खरच सको खुद को
ज़िन्दगी है, कोई बनिये कि दुकान थोड़ी है।

बहकाते है सब, तुम भी बहक जाते हो,
सितारों के आगे कोई जहान थोड़ी है।

'शब्दभेदी' अपने हिस्से का अपने आप से बनालो,
इस पउवे के शहर में तुम्हारी पहचान थोड़ी है।

मन की बस्ती

      मैं खुद को खुद ही में दस - बीस मानता हूँ । अक्सर खुद ही से किसी ना किसी बात पे लड़ता हूँ, झगड़ता हूँ ,समझाता हूँ फिर कभी किसी बात पे खुद ही का मजाक उडाता हूँ फिर खुद ही खुद पे गुस्सा हुआ करता हूँ और फिर खुद को शांत भी कराता हूँ।
      लेकिन जब खुद के अलावा किसी और से मिलता हूँ तो बड़ा सहज हो जाता हूँ जैसे किसी बस्ती के दिन्नु, टिंकू , रॉकी, राजन आपस में कितना भी लड़ता - झगड़ता हो, चुहलबाजी करता हो लेकिन बस्ती में किसी नये को देखते ही सब इकट्ठे उस अजनबी के सामने खड़े हो जातें हैं वैसे ही जैसे सबके चेहरे पर एक ही भाव होता है ठीक वैसे ही किसी से मिलते ही अपने भीतर के सारे करेक्टर्स को इकट्ठा करके मिलता हूँ ।
       तो जैसे बस्ती का कोई दिन्नुआ अजनबी को बड़ी इज्जत देता है उसे साहब कहके बुलाता है और कोई रॉकी उसके सामने अपनी हीरोपंती झाड़ता है जैसे कोई रिंकू राजन और दिन्नु सब मिलकर के रॉकी को समझाते हैं कि बे तुझे अजनबी से ऐसे नहीं बोलना चाहिए था बढ़िया आदमी लगता था वो। ठीक वैसा ही अपन से भी ऊँच-नीच हो जाता है बाद में अपन भी अपने अंदर का रॉकी को समझाता कि भाई हमेशा हीरोपंती मत झाड़ा कर।
     लेकिन कोई-कोई साहब लोग रॉकी को इग्नोर करता है और दिन्नु, टिंकू और राजन के साथ आगे बढ़ता है और कोई साहब उस टुच्चे रॉकी की बात को दिल पे ले लेता है और बस्ती में आना छोड़ देता है।

ग्लोबल गुमटी

        हमारे गाँव या कस्बे जब जगतें है , तो सड़क किनारे की चाय की गुमटियाँ भी ‪कुल्हड़‬ के साथ जग जाती हैं। चाय की हरेक चुस्की अपने आप मे तब सार्थक साबित होने लगती है जब बांस फल्ली की बनी बेंच पे बइठे-बइठे कुल्हड़ खाली करने तक आपको पुरे गाँव की खबर मिल जाती है । किशोर चचा की गईया बछड़ा बियाई है, अधार दादा का लड़कवा पीसीएस में सेलेक्ट हो गया है, दिन्नुआ की शादी तय हो गयी, सावन का आज सातवा दिन है, इस साल मलमास बढेगा, पांचक लगने वाला है और भी बहुत कुछ आसपास के चार गाँव की खबर चंद चुस्कियों में मिल जाती है ।
       दरअसल ये गुमटियां हमारे गांव और कस्बे की संस्कृति का अहम हिस्सा हुआ करती हैं। बचपन में दादा की बीड़ी और बाबू जी का पान लेने जाने से लेकर जवानी में चाय की बैठकी तक कहीं न कहीं हम सब इन गुमटियों से जुड़े होते हैं।
      अब बेबुनियादी जरूरतों को पूरा करने में, ज़िन्दगी की इस आपाधापी में बहुत कुछ पीछे छूट रहा है इसी जद में गुमटियां भी आ गयी, और छूट गयी वो बेफिक्री की चुस्कियां और बैठकी।
       एक महीने से दिल्ली में हूँ यहां भी बहुत सारी गुमटियां हैं , और कम से कम इतने लोगों को तो जानता हूँ कि गाहे-बगाहे बैठकी लगायी जा सके। लेकिन अपनी - अपनी व्यस्तताओं में सभी व्यस्त हैं और मैं भी। तो अक्सर अकेले चाय पीते हुए गुनगुना लेता हूँ ' दिल ढूंढता है फिर वही फुरसत के रात दिन'।
       मैंने मान लिया था कि ज़िन्दगी की वो रवानगी अब जाने को है । लेकिन इत्तेफाकन आज ऐसे एक कार्यक्रम में जाना हुआ जहां अपने जैसे ही कुछ लोगों से मुलाकात हुई जो गुमटियों की बैठक व बेफिक्री की कमी अपने जीवन में महसूस करते हैं और इस बात को लेकर बहुत संजीदा भी हैं। उन लोगों ने इस खो रही संस्कृति को बचाने की एक मुहीम 'ग्लोबल गुमटी' की शुरुआत की है जो कि देश दुनिया के किसी भी कोने में रहकर आपको उस याद से जोड़े रखेगी जिसके छूटने का आपको अफ़सोस है।
     यह एक वेब पत्रिका है जिसे युवा साहित्यकार पुरष्कार से नवाजित, माटी से जुड़े लेखक निलोत्पल मृणाल और उनके साथियों ने शुरू किया है। खास बात यह है कि हम आप कोई भी इस मंच पर अपने विचार रख सकता है। फ़ेसबुक पर इस मंच के उदघाटन का इवेंट देखा तो सोचा आज रविवार है, दफ्तर की छुट्टी भी है, हो आता हूँ। लेकिन उम्मीद से बेहतर दिन रहा।
       नीलोत्पल भैया आपको और आपकी पूरी टीम को बहुत - बहुत धन्यवाद उस संस्कृति को जीवित रखने का प्रयास करने के लिए। ढेर सारी बधाईयां और शुभकामनाएं भी। अपने स्तर पर मेरा भी प्रतिभाग रहेगा इस मुहीम में जैसा कि नीलोत्पल भैया से बात हुई है। इस गुमटी पर अब तो आना जाना लगा ही रहेगा।