एक रोज तंग आकर मैंने
हसरतों को बड़ी पोटली में बांधकर
बेचने चल दिया बाजार में
खोली पोटली, बैठा मैं अच्छा स्थान देखकर
लोग खूब इकट्ठा हुए
बाज़ार में नई दूकान देखकर
फिर तो खुसी का ठिकाना न रहा
फूला न समाया मैं हसरतों के तलबगार देखकर
यूँ तो औने पौने में बेचना था
भाव बढ़ा दिए मैंने इतने खरीदार देखकर
उलटे-पलटे, पर भाये न किसी को
मायूस था, हैरान था ये अलमजार देखकर
हसरतें कच्ची हैं, बेरंग हैं
आये गये सभी मेरा सामान देखकर
मुंह बिचकाए, आजमाए हर कोई
हुआ अचंभा, दंग रह गया मैं ये बाजार देखकर।
हो गयी शाम, बाजार बंद हो गयी
सब लौटने लगे अपना -अपना सामान बेचकर।
हसरतें तो बिकने से रही, बोझ और बढ़ गया
लौटा मैं मायूसियों की एक और पोटली बांधकर।
कोने में खड़ा फटेहाल, घूरे है सुबह से
उठते ही बुलाया उसने मुझे आवाज देकर।
हसरतें तेरी है इन्हें तू ही रख 'शब्दभेदी,
मैंने लगाई थी दुकान, हो गया मैं भी कंगाल बेचकर।
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