Thursday, October 13, 2016

मन की बस्ती

      मैं खुद को खुद ही में दस - बीस मानता हूँ । अक्सर खुद ही से किसी ना किसी बात पे लड़ता हूँ, झगड़ता हूँ ,समझाता हूँ फिर कभी किसी बात पे खुद ही का मजाक उडाता हूँ फिर खुद ही खुद पे गुस्सा हुआ करता हूँ और फिर खुद को शांत भी कराता हूँ।
      लेकिन जब खुद के अलावा किसी और से मिलता हूँ तो बड़ा सहज हो जाता हूँ जैसे किसी बस्ती के दिन्नु, टिंकू , रॉकी, राजन आपस में कितना भी लड़ता - झगड़ता हो, चुहलबाजी करता हो लेकिन बस्ती में किसी नये को देखते ही सब इकट्ठे उस अजनबी के सामने खड़े हो जातें हैं वैसे ही जैसे सबके चेहरे पर एक ही भाव होता है ठीक वैसे ही किसी से मिलते ही अपने भीतर के सारे करेक्टर्स को इकट्ठा करके मिलता हूँ ।
       तो जैसे बस्ती का कोई दिन्नुआ अजनबी को बड़ी इज्जत देता है उसे साहब कहके बुलाता है और कोई रॉकी उसके सामने अपनी हीरोपंती झाड़ता है जैसे कोई रिंकू राजन और दिन्नु सब मिलकर के रॉकी को समझाते हैं कि बे तुझे अजनबी से ऐसे नहीं बोलना चाहिए था बढ़िया आदमी लगता था वो। ठीक वैसा ही अपन से भी ऊँच-नीच हो जाता है बाद में अपन भी अपने अंदर का रॉकी को समझाता कि भाई हमेशा हीरोपंती मत झाड़ा कर।
     लेकिन कोई-कोई साहब लोग रॉकी को इग्नोर करता है और दिन्नु, टिंकू और राजन के साथ आगे बढ़ता है और कोई साहब उस टुच्चे रॉकी की बात को दिल पे ले लेता है और बस्ती में आना छोड़ देता है।

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