कभी - कभी मैं सोचता हूँ
मैं दौड़ रहा हूँ,
किसी रेस में दौड़ते
घोड़े की तरह।
या फिर...
दौड़ रहा हूँ,
पटरियों पर दौड़ती
रेलगाड़ियों की तरह।
कभी - कभी मैं सोचता हूँ
मैं ठहरा हुआ हूँ,
शहर की भगदड़ निहारते
किसी बस अड्डे की तरह।
या फिर...
ठहरा हुआ हूँ,
अरसे से ठहरे,
नुक्कड़ के बरगद की तरह।
कभी - कभी मैं सोचता हूँ
मैं उलझा हुआ हूँ,
चाल दर चाल उलझते,
शतरंज के मोहरों की तरह।
या फिर...
उलझा हुआ हूँ,
कई दिनों से उलझे पड़े
ऊन के गोले की तरह।
कभी - कभी मैं सोचता हूँ
मैं झूम रहा हूँ,
चैत की गर्म हवाओं में झूमती
गेहूं की बालियों की तरह।
या फिर...
झूम रहा हूँ,
बैलों के गले में झूमती
घण्टियों की तरह।
कभी - कभी मैं सोचता हूँ
मैं तप रहा हूँ,
दोपहर की तेज धूप में तपती
मिट्टी की सड़कों की तरह।
या फिर...
तप रहा हूँ,
लोहार की भट्ठी में तपते
लोहे की तरह।
कभी - कभी मैं सोचता हूँ
मैं सर्द पड़ा हूँ,
बारिसों में भीगे खड़े
किसी खम्भे की तरह।
या फिर...
सर्द पड़ा हूँ,
किसी पार्क की सर्द पड़े
लोहे की बेंच की तरह।
कभी - कभी मैं सोचता हूँ...!
- रजनीश 'शब्दभेदी'
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