तीसरा दिन हुआ आज घर से आये। रोज शाम को जब दफ्तर से लौटता हूं तो आराम करने के बहाने कुछ देर बालकनी में बैठता हूं और आदतन अंगुलिया फोन की गैलेरी तक पहुंचती हैं। एक-एक करके सारी फोटोज देखता हूँ और इसी बीच अम्मा से बात भी करता हूँ।
आज शाम को जब लौटा तो मन में अजीब उचट मची हुई थी। कुछ देर बॉलकनी में टहलता रहा, फोन में भी मन नहीं लग रहा था। सीढ़ियों पर जाकर बैठ गया।
विशाल फैले आसमान और उसकी गोंद में नन्हे चांद को निहारने का मैं बचपन से कायल हूँ। खुले आसमान को ताकते हुए भावनाएं अब शून्य से शिखर की ओर बढ़ रही थीं..
नहीं.. इस बार अम्मा की ज़िद नहीं याद आयी.. और ना ही भांजियों का लिपट जाना याद आया न ही दीदी की याद आयी। जिनकी तस्वीर फोन में नहीं दिल-ओ-दिमाग में होती है.. इस बार उनकी याद आयी।
हां बाऊजी की याद आयी..
एक दशक हुए मुझे बाहर रहते.. पढाई के दिनों से लेकर आजतक उन्होंने कभी मुझपर कोई दबाव नहीं बनाया। कम से कम शब्दों में बोलकर हमेशा मुझे खुद के प्रति ईमानदार रहने की सलाह देते रहे।
बाऊजी भी इस वक़्त दुआर पर खटिया लगाकर लेटे आसमान को देख रहे होंगे। जब भी घर जाता हूँ, उनके बगल ही खटिया लगती है मेरी। उस वक़्त हम बिना एक-दूसरे की तरफ देखे आपस में बात करते हैं। इस बातचित में अधिकतर मैं अपनी नाकामियां और निराशाएं गिनाता और बाऊजी मुझमें उम्मीद कायम रखने की कोशिश करते हैं।
बाऊजी के बगल में लेटे हुए जब मैं दूर तक फैले आसमान को देखता हूँ तो ऐसा लगता है मानो आसमान बाऊजी हों और मैं उनका रजनीश (चाँद)।
आज जेहन में उभरी बाऊजी की तस्वीर और आसमान को बारी-बारी से देखता हूँ और सोचता हूँ कि इतनी विशालता आसमान से बाऊजी को मिली या बाऊजी से आसमान को!
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