Wednesday, June 14, 2017

ढहती स्मृतियां


#मेरा_पहला_स्कूल, जिसमें मैंने शुरुअात की विवेकशील इंसान बनने की। 'गदहिया गोल' मेरी पहली कक्षा थी जिसे आज कॉन्वेंट के दौर में एल केजी का नाम दिया गया है।
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गिनती तो मुझे बड़ी दीदी ने पहले ही सिखा दिया था लेकिन मैंने यहां आकर गदहिया गोल में ही सीखा इकाई, दहाई और सैकड़ा के हिसाब से दुनिया को देखना।
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कुछ कवितायें जिन्हें मैं आज तक नहीं भूल पाया हूँ इसी स्कूल के सामने सांझ के पहर गोलाई में बैठकर रटी थी हमने। अपने बोरे पर दूसरे को बिठाकर मित्रता करना और किसी का अमरूद खाकर उसको अपना बेर खिलाना यहीं सीखा मैंने।
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दूसरे गांवों के मेरे दोस्त मुझे मिलते थे नहर पर हम एक दूसरे के कंधे में कन्धा डालकर स्कूल तक पहुंचते थे। आज उनमें से कु्छ कंधे करते हैं खेती किसानी और कुछेक सरकारी नौकर हैं, और कुछ मेरी तरह घर से दूर रहकर करते हैं प्राइवेट नौकरी और खुशी-खुशी उठाते हैं ज़िम्मेदारियों का बोझ।
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मेरे गांव तक पहुंचने के लिए आप देश दुनिया के किसी कोने से आये, आपको मेरे स्कूल के रास्ते से होकर गांव जाना होगा। मैं जब भी गुजरता हूँ इस रास्ते से एक नजर स्कूल को जरूर देखता हूँ। स्कूल के आसपास के जगहों से मुझे इतना प्रेम है जैसे मेरा उन जगहों से जनम-जनम का नाता हो।
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आस-पास के 10 गांव में एक ही मान्टेशरी स्कूल था। हालांकि कुछ गांव में सरकारी स्कूल भी थे लेकिन उनका होना सिर्फ बच्चों के अभिभावकों को वजीफा के नाम पर प्रति माह 3 किलो गेंहूँ मिलना और दो टूटे-फूटे कमरे का होना था।
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इस बार जब घर जाना हुआ तो पता चला कि बंद हो गया है यह स्कूल।आज भी नहीं हैं आसपास के 10 गांवों में बड़े स्कूल लेकिन बड़ी बसें आती हैं गांव से बच्चों को ले जाने के लिए जो स्कूल 6 कोस दूर टाउन के पास है वहां के लिए।
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सोचता हूँ अब कहाँ होंगे वो मास्टर जिनको गर्व होता था इस स्कूल का हिस्सा होने पर और अब कहाँ गयी वो हर गांवों से निकलने वाली मस्तानों की टोली जो एक स्वर में कहती थी 'मॉन्टेशरी में पढ़ते हैं'। वक़्त की आंधी में इस स्कूल के उड़ते छप्परों और ढहती दीवारों के साथ मेरे दिल की एक सुंदर सी स्मृति भी ढ़हने के कगार पर है।
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देखो...
दूर वहां
जहां दिन ढल रहा है,
एक वक्त की बात है
कई सूरज उगा करते थे।
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शब्दभेदी

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