Friday, April 22, 2016

मतलब की दुनिया

मतलब की दुनिया है, मतलब से है आदमी,
कौन किसे कब तक याद रखता है !
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शहीदों की चिताओं पर लगते हैं मेले ,
शहादत भूल जाता है, मेले याद रखता है !
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जर, जमीन, तहजीब पुरखों की अमानत है,
पुरखों को भूल जाता है, वसीयत याद रखता है !
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वक्त-वक्त की बात है, याद रहे 'शब्दभेदी'
आदमीं वक्त भूल जाता है , हैसियत याद रखता है !

Thursday, April 21, 2016

सोसिअली बायकाटेड

     
       हम जरा सा लापरवाह क्या हुए आपने तो हमें सोसिअली बायकाट कर दिया....
        वाकिफ था इस बात से 'कौन कितने दिन याद रखता है', लेकिन सोचा था कम से कम जब तक विभाग में हूँ तब तक तो जूनियर्स की यथासम्भव मदद करूंगा और उनकी नजर में एक अच्छा सीनियर से अतिरिक्त एक अच्छा इन्सान बनने की कोशिश करूंगा । लेकिन बात तो सच है कौन कितने दिन याद रखता है ???

        पिछले कुछ दिनों से अपनी व्यक्तिगत व्यस्तताओं की वजह से विभाग नही जा पा रहा हूँ । अब जब जा नही पा रहा हूँ तो क्लासेज और असाइनमेंट भी नहीं कर पा रहा था । इस बाबत विभाग की नोटिस बोर्ड पर परम्परागत तौर से चिपकाई जा रही निकम्मों की सूची में नाम आ गया। आज उसी सिलसिले में विभाग जाना हुआ । अपने क्लासमेट और मित्र राहुल के साथ विभाग पंहुचा। विभाग पहुचते ही आदतन तेज कदमों से सीधे हम दोनों अपनी क्लास में जा पंहुचे । सोचा हमेशा की तरह दो-चार लोग अपना काम कर रहे होंगे, लेकिन अंदर का नजारा देख कर हम दोनों के होस ही उड़ गये । 'बिन बुलाये मेहमान की ' फीलिंग के साथ नजरें जमीन में गडाये हुए खचाखच भरी हुई क्लास के पीछे वाली सीट पर जा कर बैठ गये । अंदर के नजारे को देखकर विभाग के नाम का सारा गुमान एक झटके में चूर-चूर हो गया । मैंने वहां बैठे रहकर और जलालत झेलने से बेहतर बाहर जाना उचित समझा । कुछ बैचमेट्स ने नैतिकतावस रोका भी लेकिन ये खुद्दार कदम थे की रुके ही नही ।

          दरअसल अंदर हमारे बैच के फेयरवेल के नाम पर एक पार्टी चल रही थी।कुछ दिनों पहले किसी ने बताया था की फेयरवेल होगा तो खुशी हुई थी सोचा विभाग से एक बेहतरीन अनुभव होगा । लेकिन सोचा नही था इतना बेहतरीन अनुभव होगा । मैं आपको इस फंक्शन की हकीकत सुनाऊं
लेकिन उससे पहले एक रोचक वाकया सुनिए........
         पिछले साल के अंत में विभाग से अंतर्राष्ट्रीय फिल्म फेस्टिवल के लिए हम लोगों का गोवा का टूर था । तो लड़कियों के न जाने की वजह से और लोगों की अपनी-अपनी व्यक्तिगत वजहों से जाने वाले सिर्फ दस लोग थे । मुझे भी कुछ लोगों के साथ न आने का दुःख था । सोचा था कुछ दिन कहीं बाहर साथ रहेंगे तो कुछ गिले-सिकवे दूर होंगे । खैर जो नही हो सका उसकी क्या बात करना जो हुआ उसकी बात करता हूँ । मेरी ना-नुकुर के बावजूद क्लास की आम सहमती और सर की इच्छा से मुझे उस दस की टोली की मुखिया बना दिया गया । मुझे मेरे सीनियर्स से इस तरह के टूर में होने वाली सभी तरह की अनहोनियों का पूर्वज्ञान था इसलिए मैं थोडा कतरा रहा था । इसीलिए मैंने मेरे क्लासमेट Ramendra Ojha को भी इस लीडरी में साथ रक्खा। हालाँकि ओझा जी भी इस जिम्मेदारी से भाग रहे थे लेकिन सर के दबाव में वो किसी तरह तैयार हुआ ।जिम्मेदारी लेकर अपना टूर कौन बर्बाद करना चाहता था सब मजे लेने गये थे मजे लेकर आये । बली का बकरा तो मुझे बनना था ।
              यूनिवर्सिटी से मिले फंड का हिसाब मैं यहां नहीं दूंगा । कम छीछालेदर नहीं हुई है इस मुद्दे पर । खैर टूर के शुरू होने से लेकर लौटने के तीन महीने बाद तक फण्ड से रूपये गबन करने के आरोप लगते रहे ।मैं भी आदतन झल्लाया लोगों से बहस भी की और भी कुछ शर्मनाक हरकत हुई मुझसे । आज भी कुछ लोगों को लगता है टूर में मैंने फंड के पैसे से अपना व्यक्तिगत खर्च चलाया । ऊँचे लोग ऊँची सोच । टूर में जिस दरियादिली कॉमन फंड से खर्च किये थे उसका खामियाजा अभी तक भुगत रहा हूँ 
            अब टूर न जा पाने वालों का भी अपना दंस था । विभाग में एक के बाद एक आरटीआई फाईल की गयी । मुझसे लगातार हिसाब माँगा जाता रहा । मतलब जलालतों का एक ऐसा सिलसिला चला की क्या कहने ! मुझे दोषी की तरह जब जिसने चाहा कटघरे में खड़ा किया । अब मरता क्या न करता अपने नुकसान की परवाह किये बगैर मैंने यूनिवर्सिटी को पूरा हिसाब बिल सहित दे दिया ।
           अब मेरा सवाल ये है की कल के फंक्शन में जो विश्वविद्यालय से फण्ड आया उसके हिसाब की भी किसी को खबर है या फिर पूरी-सब्जी, पेटीज-पेस्ट्री खाकर ही खुस हो सब ??? और प्लास्टिक के कुछ मेडल्स भी खुशियाँ दे रहे होंगे ?? खैर जो ऊँची सोच वाले बौद्धिक लोग है उनसे ये कहना चाहूँगा 'अब तो खाने को मिल गया अब क्यूँ आरटीआई फाईल होगी, है ना ???' और जो मेरी तरह की नीची सोच वाले है उनके लिए भी एक बात है 'तीन घंटे चूतियों की तरह तुम्हे बिठा कर, थोडा तेल-पानी लगाकर फेयरवेल के नाम पर जो छलावा हुआ तुम्हारे साथ उसका जरा सा भी आभास है तुम्हे ???' 

   और हां कुछ हजार रुपयों के लिए ड्रामा करके लोगों को उल्लू बना कर बिना किसी अड़चन के गबन करने वालों को भी बधाई !

Sunday, April 17, 2016

छात्र राजनीती का बंटाधार

           देख लो भैया छात्र राजनीती का बंटाधार । कम से कम इलाहाबाद में तो, मैं नहीं मान सकता की छात्र की राजनीति छात्र ही करते हैं । लगभग शतरंज के खेल जैसा होता है सबकुछ । छात्रों की सकल में मोहरे लगा दिये जाते और पूरा खेल कोई और खेल रहा होता है । इन मोहरों को पेश किया जाता है क्रन्तिकारी के तौर पर । खुद को बौद्धिक मानने वाले हजारों छात्रों की भीड़ गवारों की तरह इसी मोहरे के पीछे खडी होती है । और अंत में उस मोहरे को अपनी जरूरत के हिसाब से खिलाडी जहां चाहता है वहां रख देता । पीछे खड़ा हुजूम अब खुद को ठगा महसूस करने लगता है । ऐसा इसलिए क्यूंकि वो मोहरा नहीं है, उसकी बौद्धिकता जाग जाती है, बचे-खुचे सिद्धांतों को वोअपनी आँख खोलने में लगा देता । खैर जब आप दूर खड़े होकर तमासा देखो तो मजा आता मोहरे को भी देखकर और उसके पीछे के हुजूम को भी देखकर । खिलाडी का क्या है पिद्दी से हाथी, घोडा , ऊँट या वजीर मारकर और कभी-कभी तो पिद्दी से पिद्दी ही मारकर ही खुस हो लेता है ।
         मुद्दे पे आता हूँ, इलाहाबाद विश्वविद्यालय की वर्तमान अध्यक्ष ऋचा सिंह ने सपा ज्वाइन कर लिया और उनके पैतृक जिले अलीगढ़ या फिर उनकी कर्मभूमि इलाहाबाद से उन्हें विधायकी का टिकट भी मिलने वाला है । मैडम ने जब सत्र की शुरुआत में छात्रसंघ चुनाव के चंद दिनों पहले अध्यक्ष पद के लिए मैदान में आयी तो बौद्धिक , विकासवादी और बड़ी संख्या तथाकथित नारीवादी (खुद को समझने वाले ) लोगों ने भी इस मोहरे के पीछे की भीड़ होने का काम किया
          शहीद-ए-आजम भगत सिंह ने गाँधी जी पीछे खड़ी भेड़ियाधसान को देख के चिंता प्रकट की थी । भगत सिंह कहते थे 'आँख मूंद के किसी के पीछे चलना भी एक तरह की गुलामी होती है ।' सच है आप किसी के व्यक्तित्व को जानिए उसके विचारों और आदर्शो को जानिए , समझिये फिर उसके पीछे जाईये तो ठीक है । खोखली उम्मीदों को लेकर किसी के पीछे भागना भी कहा सही होता है । जब मेरे जैसे कुछ लोगों ने चुनाव में सपा पैनल के समर्थन और कुछ क्रांति की मूल से परे जा  रही बातों पर आपत्ति जताई थी तो इन अंधे समर्थको ने या यूँ कह लो इन गुलामो ने हमारी बहुत किरकिरी की और कहा इनकी आदत है हर जगह टांग लड़ाने की । 
          अब मेरा सवाल सिर्फ उनके उन्ही समर्थकों से है जो छात्रसंघ चुनाव से पहले सपा पैनल के समर्थन पर निराश लोगों को चूरन दे रहे थे अब अक्ल आई हो तो समझदारी दिखाओ गवारों की तरह भीड़ का हिस्सा न बनों । और हां दीदी जी को ढेर सारी बधाइयाँ राजनीति में वैसे नित नये मुकाम हासिल करिये जैसे हमारे देश के नेता करते रहते है । एक निवेदन है 'प्लीज सिद्धांतो की बात मत किया कीजिये ' _/\_

Sunday, April 10, 2016

युवा और उसकी राह

            गर्मी के इस मौसम में प्रवेश से लेकर सत्र तक की तमाम तरह की परीक्षाएं तापमान को और बढ़ा देती हैं। इस दिमागी तापमान के बढ़ने की असली वजह है भविष्य को लेकर बेहद असुरक्षाबोध और अनिश्चितताएं। बचपन से ही हमें अर्जुन की तरह लक्ष्यधर्मी होने की शिक्षा दी जाती है।
           लेकिन एक उम्र और समय आने पर हमारी लक्ष्यधर्मिता भटकती जान पड़ती है। इलाहाबाद विश्विद्यालय जहाँ से मेने अपनी शिक्षा पूर्ण की , से  कला विषयों में स्नातक और स्नातकोत्तर के अंतिम वर्ष के विद्यार्थियों को बहुत करीब से देखने-समझने का मौका मिल रहा है। जिस विद्यार्थी ने अपना लक्ष्य तय कर रखा है, उसे भी ‘बैकअप प्लान’ लेकर चलना पड़ रहा है। मन में एक अनिश्चितता बैठी है कि अगर ये नहीं हुआ तो! ये लोग तमाम तरह की प्रवेश परीक्षाओं और साक्षात्कार से गुजर रहे हैं, यानी विकल्प तैयार करके रख रहे हैं। लेकिन सवाल है कि आज विद्यार्थियों को इस तरह के विकल्पों की जरूरत क्यों है? क्या उनके भीतर आत्मविश्वास में कोई कमी है? दूसरे सवाल पर अलग-अलग राय हो सकती है।
           पहला, कुछ लोग इसे सीधे-सीधे आत्मविश्वास की कमी के तौर पर देखेंगे। दूसरे, लोग इसे अनिश्चितताओं से उपज रही अक्षमता के तौर पर भी देखेंगे। लेकिन अगर बारीकी से देखें तो दूसरा मत पहले मत से ज्यादा महत्त्वपूर्ण होता दिख रहा है जो हमारी शिक्षा प्रणाली से लेकर व्यवस्था तक से सीधे जुड़ा है।
           गाँधी जी के अनुसार - ‘युवा स्वयं में एक प्रतिभा है।’ ऐसी प्रतिभा जिसे अगर सही दिशा न मिले तो वह आत्मघाती हो सकता है। यह एक ऐसा दौर है जब हिंदुस्तान युवा हो रहा है। तकरीबन आधी आबादी पचास साल से कम उम्र की है। लेकिन विडंबनापूर्ण स्थिति यह है कि भारत की नियामक राजनीतिक-प्रशासनिक, विश्वविद्यालयी और आर्थिक शक्तियां इसके लिए तैयार नहीं हैं।
          युवाओं को कैसे और किस दिशा में ले जाना है, इसकी चिंता देश के नेतृत्व-वर्गों के बीच बिल्कुल नहीं दिखती है। विश्वविद्यालयों में न तो सभी इच्छुक विद्यार्थियों के लिए जगह है, न नए विचारों और शोध संभावनाओं के लिए। युवाओं की प्रतिभा को पल्लवित-पुष्पित होने के लिए खुले अनंत आकाश की तरह अवसर मिलना जरूरी है। यह तभी संभव है जब युवाओं को बेहतर और गुणवत्तापूर्ण शिक्षा व्यवस्था मिले। शिक्षा प्रणाली ऐसी हो जो विविधता, वैज्ञानिक बोध, तार्किकता, आत्मविश्वास, आत्मसम्मान और उत्तरदायित्वबोध से लैस करे।
          आज भी स्नातक और स्नातकोत्तर की अहमियत बनी हुई है। लेकिन इन पाठ्यक्रमों के बूते युवा रोजगार हासिल नहीं कर पाते। दरअसल, युवावस्था उपयोगिता के सिद्धांत के प्रतिरोध के कारण ही विलक्षण है। युवाओं के जीवन का उद्देश्य किसी खांचे में समा जाना नहीं होना चाहिए। कई बार ऐसा देखने को मिलता है कि इसी जद्दोजहद में युवा संक्षिप्त रास्ते की खोज में लग जाते हैं। उसके लिए स्वस्थ विकल्प न तो बाजार में हैं और न अपने आसपास के इलाकों में। हालत यह है कि पीएचडी की डिग्री लिए हुए शिक्षक भी वर्षों से विश्वविद्यालयों में अनुबंध पर सेवा दे रहे हैं। जब एक शिक्षक ही अंधेरे में हाथ-पांव मार अपनी अनिश्चितता से संघर्ष कर रहा हो तो ऐसे में विद्यार्थियों के सामने की अनिश्चितता को खत्म करना दिवास्वप्न ही होगा। यह ध्यान रखा जाना चाहिए कि अगर स्थितियां ऐसी ही बनी रहीं तो एक अराजक कल की आशंका से इनकार नहीं किया सकता। देश के युवा को अंधेरे अनंत आकाश में खोने से बचाना होगा।

Saturday, April 9, 2016

गांवों का शहरीकरण

        हमारे यहां साधारणतया गर्मियों का मौसम विवाह आदि संस्कारों के लिए जाना जाता रहा है। इस समय स्कूलों में छुट्टियां होती हैं, खेती-बाड़ी में राहत होती है और खाली समय पर्याप्त होता है। लेकिन अब समय चक्र तेजी से बदला है। मनुष्य उसके प्रवाह में चाहते और न चाहते हुए भी बह रहा है। गांव सिमट गए और शहरों का क्षेत्रफल बढ़ गया है, मगर दिलों के दायरे सिकुड़ गए हैं। इस पलायन की प्रमुख वजह गांवों की अपेक्षा शहरों में अधिक सुख-सुविधाओं का होना है।
        माना जाता है कि संसार भोगमय है। लेकिन इन दिनों जिस तरह के भोग का बोध हो चला है, वह मनुष्य की गरिमा के विरुद्ध और मशीन के करीब है। जो सुविधाभोगी हैं, वे सब कुछ अतिक्रमित करने को आतुर हैं। संवेदना, सहृदयता जैसे मूल मानवीय गुण लुप्त होने के कगार पर हैं। निजी सुख प्रधान हो चुके हैं और इससे बाहर झांकने का दायरा अपने जन्मे बच्चों से आगे नहीं बढ़ पाता। क्या पहले लोग अपने परिवार से मोह नहीं रखते थे? या फिर अब ज्यादा समझदार हो गए हैं?
        समाज से अर्जित (कानूनी और गैर-कानूनी) संपदा का दुरुपयोग यह मान कर करना कि वह उसका नैतिक हकदार है, गलत है। दरअसल, आज इस कथित नैतिकता ने अपने पांव तेजी से पसारे हैं। तो इन्हीं फुर्सत के क्षणों में एक शादी समारोह में सतना के पड़ोस के गांव कंचनपुर जाना हुआ। वहां एक पट्टीदार परिवार में बिटिया की शादी में जो प्रबंध किए गए थे, उनका स्तर किसी शहर में किए समारोह से कमतर नहीं था।
खूबसूरत मंच के बगल में सुसज्जित आॅर्केस्ट्रा और उसके सामने वर-वधु के लिए दस फुट ऊंचा घूमने वाला मंच बनाया गया था, जिसमें एक पाइप के जरिए पुष्प-वर्षा के लिए मशीनीकृत प्रबंध था। यानी आशीर्वाद देने के लिए अब संबंधियों और शुभचिंतकों की जगह डीजल चलित एक पंप ने ले ली थी। हालांकि शहरों में भी विवाह कार्यक्रम पूरी तरह नाटकीय हो चुके हैं, जहां मेहमान और मेजबान दोनों हद दरजे की औपचारिकता को पार कर चुके हैं।
          टेलीविजन की संस्कृति ने जिस गहराई से अपनी पैठ गांव में बनाई है, वह शहरों को कहीं पीछे छोड़ती दिखती है। लेकिन साधनों और धन के एवज में सलीका नहीं खरीदा जा सकता। इसलिए खाने के अहाते में जूठी और फेंकने वाली प्लेटों का बिखराव कुछ यों था, जैसे पतझड़ के मौसम में पत्ते आसपास की धरती को ढंक लेते हैं और उन पर चलने से कर्र-कुर्र, चर्र-मर्र की आवाज आती है। फिर बच्चे-बुजुर्ग, स्त्री-पुरुष सभी चाउमिन चाट के लिए जूझते दिखे।
          पाउच को मुट्ठी में लिए पानी चूसते देख कर याद आया कि गांव में बरातियों का स्वागत कभी किस्म-किस्म के आम चूसने से होता था। अब सब ध्वस्त है। न आम बचे और न सरल स्वभाव के आम लोग। यह देख कर लगता है कि शहरी संस्कृति की बराबरी और आधुनिकता की अंधी दौड़ में गांव अपनी तासीर गंवा के कहीं के नहीं रहे। न तो वे शहर बन सके और न ही गांव बने रह सके। चाहे अधूरा ज्ञान हो या अधकचरी संस्कृति, इससे समाज को कुछ हासिल नहीं होता। मौलिकता में संसार का सबसे अप्रतिम सौंदर्य है।
मौलिकता और सरलता से बड़ा मनुष्य का आभूषण और कुछ नहीं हो सकता। लेकिन दिनोंदिन वस्तुपरक, प्रदर्शनपरक हो रहे समाज में मनुष्य कहां शेष है, यह गंभीरता से सोचने का विषय है। मनुष्य न तो मशीन और न संवेदनहीन हो सकता है। लेकिन ऐसा बनने को वह लालायित दिखता है। शहर तो वैसे भी संबंधों की मिठास से रीते हुए हैं, गांव को भी इसकी जद में आते देख कर पीड़ा होती है। ये बेतरतीब बदलाव हमें कहां ले जाएंगे और यही सोचते हुए मैं पंडाल से बहार आया।

Friday, April 8, 2016

ख्वाहिश-ए-शब्दभेदी

ये मेरा तन-मन, मेरे जोशो-जुनून
मेरा सबकुछ सुपर्द खाक-ए-वतन करना ।

मेरे अज़ीज़ों बस इतना करम करना ,
मर जाऊं तो तिरंगे में दफ़न करना ।

मिट्टी में मिल जाये मेरी मिट्टी जब ,
गुलों से गुलजार वहीं इक चमन करना ।

'शब्दभेदी' बस इतनी सी ख्वाहिस है मेरी,
जितना हो सके मुल्क में मेरे अमन करना ।

Tuesday, April 5, 2016

दिल-ए-नादाँ

यूँ बर्बाद-ए-इश्क़ को जलजला कुछ नहीं होता,

सफर तो होती है मगर मरहला कुछ नहीं होता।


बेवजह सुलझाता हूँ गुत्थियां मैं सारी-सारी रात,
दिल परेशान होता है मसअला कुछ नहीं होता।

पेश करता हूँ दलीलें अपनी ही अदालत में,
बहस तो खूब होती है फैसला कुछ नहीं होता!

हर सुबह कोशिश में लगता हूँ खुदको बदलने की,
कि शब भी आती है मगर बदला कुछ नहीं होता!

जिरह अब किसी से नहीं करता मैं तंगहाली का,
गम अपना गुफ्तगू गैरों से, मिला कुछ नही होता!

अड़ा है जिद पे ये दिल-ए-नादाँ 'मत पलटो'
हर्फ़ उसके नहीं तो पन्ना अगला कुछ नहीं होता!

जिक्र-ए-अतीत में डूबे दिल को कोई समझाये,
खोज-ए-शुकून में ये सिलसिला कुछ नहीं होता!

शब्दभेदी हंस के देखा तो दिखी जहां की रंगीनियां
वरना भीगी पलकों से अच्छा-भला कुछ नहीं होता!

Monday, April 4, 2016

पागल चकोर

खुद सा हुआ तो हंगामा कैसा ??
औरों सा रहा तो क्या खूब रहा मैं !
मैं तो नहीं, भले हो वो मेरे जैसा ..
वो शख्सियत जिसमें मशहूर रहा मैं !
पागल चकोर हूँ, वो है झील के चाँद जैसा,
अरसे से जिसका महबूब रहा मैं !
खबर नही, था कैसा, हूँ आज कैसा ??
'शब्दभेदी' जरूरतों में इतना मशगूल रहा मैं !

Sunday, April 3, 2016

बचालो गांव !

         भारतीय साहित्य और राजनीति की भाषा में गांव अभी भले जीवित हो, महानगरीय पत्रकारिता से गांव-देहात गायब हो चला है। जब कभी हजारों किसान-मजदूर राजधानी में धरना-प्रदर्शन के लिए जाते हैं, तो अखबारों, टेलीविजन चैनलों में खबरें इन लोगों की वजह से प्रभावित होने वाले यातायात की होती है। हमें पता भी नहीं चलता कि इनकी मांगें क्या थी और किन समस्याओं को लेकर ये राजधानी गए थे। ऐसे में गांव और उसके बदलते यथार्थ को विश्वविद्यालयों में होने वाले समाजशास्त्रीय अकादमिक अध्ययनों के लिए छोड़ दिया गया है।
          भारतीय गांव, उसकी बोली-बानी, बदलते जीवन यथार्थ और उसकी समस्याओं को एक जगह समेटने के उद्देश्य से पिछले दिनों पी साईनाथ की पहल से ‘पीपुल्स आर्काइव आॅफ रूरल इंडिया’ नामक एक वेबसाइट शुरू की गई है। इसे उन्होंने हमारे समय का एक जर्नल और साथ ही अभिलेखागार कहा है। इस वेबसाइट पर विचरने वाले एक साथ विषय-वस्तु के उपभोक्ता और उत्पादक दोनों हो सकते हैं। इस पर उपलब्ध सामग्री, फोटो, वीडियो का इस्तेमाल कोई भी मुफ्त में कर सकता है। साथ ही कोई भी इस वेबसाइट के लिए सामग्री मुहैया करा सकता है और इसके लिए पेशेवर पत्रकारीय कौशल की जरूरत नहीं है। इसे चलाने के लिए पी साईनाथ किसी राजनीति या कॉरपोरेट जगत से धन नहीं लेना चाहते, बल्कि आम लोगों के सहयोग की उन्हें दरकार है।
          किसानों के जीवन, उनकी समस्याओं से मीडिया की बेरुखी और जीवनशैली, फैशन, फिल्मी शख्सियतों की जिंदगी में अतिरिक्त रुचि पर व्यंग्य करते हुए पी साईनाथ ने अपने एक लेख में लिखा था- ‘1991-2005 के दौरान लगभग अस्सी लाख किसानों ने खेतीबाड़ी छोड़ दी, लेकिन वे कहां गए इसकी चिंता कोई नहीं करता। कोई व्यवस्थित काम इस सिलसिले में नहीं किया गया है। मीडिया की इसमें कोई रुचि नहीं है। हां, भले ही हम आपको यह बता सकते हैं कि पैरिस हिल्टन कहां हैं!’ पिछले कुछ सालों में भारतीय मीडिया में न सिर्फ खबरें बदली हैं, बल्कि खबरों की नई परिभाषा भी गढ़ी गई है।
        जन्मभूमि और कर्मभूमि आप खुद नहीं चुनते, वह आपको चुनती है। मेरा जन्म सुरत में हुआ और मेरी कर्मभूमि उत्तर प्रदेश का एक छोटा सा गांव है। मेरे लिए गांव एक जीवित यथार्थ है, जहां देश की आबादी के करीब सत्तर फीसद लोग रहते हैं। पर पता नहीं, बीस-तीस साल बाद मेरी अगली पीढ़ी के लिए गांव का मानचित्र कैसा होगा !
        मुझे गांव छोड़े लगभग दस साल हो गए, पर गांव अभी छूटा नहीं है। महीने-दो-महीने में गांव चला ही जाता हूं। जब गांव से शहर की ओर लौटता हूं तो लगता है कि कुछ छूट रहा है। बचपन की कुछ स्मृतियां, सपने, रंग और आबोहवा। जो बचा है, मन उसे तेजी से समेट लेना चाहता है। निस्संदेह मेरे जैसे हजारों लोगों के लिए यह पहल इस गुजरते जीवन की एक सुखद भेंट हैं। पर इस भेंट को आने वाली पीढ़ी के लिए संभालने का जिम्मा भी हम जैसे लोगों पर ही है, जो मुख्यधारा के मीडिया के बरक्स न्यू मीडिया से बदलाव लाने की अपेक्षा पाले बैठे हैं!

Saturday, April 2, 2016

बिन पानी सब सून



                अब मनुष्य अंतरिक्ष में भी अपने निशान छोड़ने में सफल हुआ है। उसे मंगल ग्रह पर भी जल यानी जीवन ढूंढ़ने में कामयाबी मिली है। नासा की हाल में आई रिपोर्ट में मंगल पर जल होने के प्रमाण इस बात की गवाही हैं कि मानव जीवन के लिए जल कितना आवश्यक है। तमाम पुरानी सभ्यताएं किसी न किसी नदी के आसपास विकसित हुई थीं। यह भी इतिहास का हिस्सा है कि कुछ सभ्यताएं पानी की कमी के कारण लुप्त हो गर्इं। चाहे वह मिस्र में नील हो या फिर इराक में फरात या चीन की यांग्त्से नदी, ये सब आज भी अपनी प्राचीन सभ्यताओं का स्मरण कराती नजर आती हैं।
               मगर प्राचीन सभ्यता से लेकर खुद को विकसित कहने वाली वर्तमान सभ्यता तक को देखें, तो आज के इंसान के लिए साफ पानी का होना फिर एक प्रमुख वैश्विक समस्या का रूप लेती नजर आ रही है। पानी की कमी आज न केवल अहम मुद्दा बनता जा रहा है, बल्कि हमारी विकसित और विकासशील दुनिया के लिए चुनौती भी
              पूरे विश्व पर गहरी नजर रखने वाले वैज्ञानिक और विचारक तो नब्बे के दशक से ही कहने लगे थे कि अगर बीसवीं शताब्दी के युद्ध तेल के लिए हो रहे हैं, तो अगली शताब्दी की जंग पानी के लिए होगी। इक्कीसवी शताब्दी में मनुष्य की सबसे बड़ी चुनौती है साफ और पीने लायक पानी पर्याप्त मात्रा में उपलब्ध कराना। जल है तो जीवन है, कहने का अर्थ यही है कि जल की बर्बादी से समाज को रोका जाए। जल की कमी प्राकृतिक और मानव निर्मित दोनों मानी जा सकती है। लेकिन आज मनुष्य जिस प्रकार प्रकृति को अपने हिसाब से चलाने की कोशिश कर रहा है, इसे मानव निर्मित समस्या ही कहना उचित होगा।
               संयुक्त राष्ट्र की ‘जीवन के लिए जल’ रिपोर्ट बताती है कि दुनिया की आबादी का पांचवां हिस्सा साफ पानी से वंचित है। इसका कारण पानी के पर्याप्त स्रोत का न होना नहीं, बल्कि पानी का गलत इस्तेमाल और बर्बादी है। पानी की कमी सभी उपमहाद्वीपों में देखी गई है। दुनिया का एक चौथाई हिस्सा पानी के आवश्यक बुनियादी ढांचे की कमी से ग्रस्त है। कुछ इलाकों में जल के पर्याप्त स्रोत तो हैं, लेकिन पूरी आबादी के इस्तेमाल के लिए पर्याप्त साधन उपलब्ध नहीं हैं।
               संयुक्त राष्ट्र की इस रिपोर्ट के अनुसार 2025 तक एक अरब अस्सी करोड़ लोग ऐसे क्षेत्रों में रह रहे होंगे, जहां पानी की किल्लत होगी और इसी कारण विश्व का दो तिहाई हिस्सा सामाजिक तनाव से ग्रस्त होगा। ऐसे आंकड़े हमें चौंकाने के लिए पर्याप्त हैं। इसीलिए जब हम मंगल ग्रह पर जीवन के निशान खोजने के लिए जल को एक प्रमुख स्रोत मानते हैं, तो अपनी सभ्यता और जीवन को बचाए रखने के लिए जल का महत्त्व भी समझना होगा।
               ऐसा माना जाता है कि विश्व में सात अरब लोगों के लिए पर्याप्त पानी है, लेकिन इसका वितरण बहुत असमान रूप से हुआ है। इसमें भी अधिकतर जल प्रदूषित है या बर्बाद हो जाता है। अगर मनुष्य के लिए जल की पर्याप्त मात्रा बनाए रखने में कोताही हो रही है, तो बात फिर वहीं आकर रुक जाती है कि मनुष्य ही मनुष्य के लिए काम आने वाले प्राकृतिक स्रोतों को अपनी नीतियों, छोटी सोच और छोटे-छोटे फायदों के लिए बर्बाद कर रहा है। मनुष्य क्यों यह नहीं सोच पा रहा कि आने वाली पीढ़ी के लिए यह धरती रहने योग्य बनाए रखनी है।
             आज शहरों में हर घर तक साफ पीने लायक पानी पहुंचाना एक समस्या है। यही कारण है कि लोग पीने योग्य पानी के लिए आरओ फिल्टर या दूसरे साधनों का उपयोग करते हैं। सब जानते हैं कि एक लीटर पीने का पानी बनाने में आरओ द्वारा कितना पानी गटर में चला जाता है। इसमें बिजली की कितनी बर्बादी होती है। एक बार पानी टैंक में पहुंचाया जाता है और फिर इसे दुबारा आरओ द्वारा बर्बाद किया जाता है। आज जिस प्रकार के शौचालय आदि उपयोग में आ रहे हैं उनमें भी पानी की बर्बादी होती है।
            आधुनिक जीवन की चकाचौंध हमसे धरती के अंदर का साफ पानी भी छीन रही है। शहरों के आसपास के पुराने जलाशयों को पाट कर उन पर निर्माण किए जा रहे हैं। ये जलाशय धरती के अंदर पानी के स्तर को बनाए रखते हैं। इससे पर्यावरण को बचाए रखने में भी सहयोग मिलता है। लेकिन अपनी सुविधा के लालच में हम आने वाली पीढ़ी के संसाधन छीन रहे हैं।
            मानव शरीर में पचपन से सत्तर प्रतिशत जल होता है और इस स्तर को बनाए रखने के लिए जल का शरीर में पहुंचते रहना जरूरी है। जल ही अगर जीवन है, तो मनुष्य के लिए इस जीवन के स्रोत को बनाए रखना सबसे प्रमुख होना चाहिए, लेकिन सवाल है कि विश्व में जल की समस्या से लड़ने के पर्याप्त प्रयास हो रहे हैं या नहीं? भारत नदियों का देश है, वह विश्व में नदियों को बचाने में विशेष योगदान दे सकता है। महात्मा गांधी ने कहा था कि धरती या जल हमें विरासत में नहीं मिला है, बल्कि अपनी आने वाली पीढ़ी से लिया हुआ ऋण या कर है, जो हमें उन्हें सही-सलामत लौटाना है।
            जल संसाधनों को बचाए रखने से हमें कई वैश्विक समस्याओं का हल भी मिलता है। विश्व में कई राजनीतिक मुद्दे केवल पानी के सहयोग की नीति के आधार पर युद्ध के स्थान पर द्विपक्षीय सहयोग में बदल गए हैं। इसलिए आज सार्वभौमिक जल के उपयोग के लिए सहयोग की जरूरत है। इससे कई सामाजिक मुद्दों का समाधान भी हो सकता है। आज अगर हथियारों पर बर्बाद होने वाली दौलत को साफ पानी के संसाधनों को बचाने में लगा दिया जाए, तो विश्व में शांति और सहयोग बढ़ाने के साथ-साथ हम आने वाली पीढ़ी का ऋण भी चुका पाने में सफल हो सकते हैं। आज जब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की विश्व भर में वाहवाही हो रही है और भारत नई वैश्विक व्यवस्था में प्रमुख भूमिका निभाता प्रतीत हो रहा है, तो क्यों न उसे विश्व में जल सहयोग नीति को लेकर प्रमुख भूमिका निभाने का प्रयास करना चाहिए। लेकिन विश्व सहयोग से पहले हमें अपने ही देश के जल संसाधनों का उचित संरक्षण और भंडारण करना होगा।
           हमें जल को अपनी राष्ट्र धरोहर समझ कर बचाना होगा। इसलिए जब भी आप साफ पानी पीएं, तो यह न भूलें कि आज भी विश्व की आबादी का पांचवां हिस्सा पीने के साफ पानी से वंचित है और यह पानी जो आपके गिलास में है, यह आपकी सभ्यता और जीवन के होने का प्रमाण है। यह जल आने वाली पीढ़ी का आप पर ऋण है, जो उन्हें वापस देना है। इसलिए अगर हम विकसित और ज्ञानी सभ्यता के रूप में आने वाली सभ्यताओं के लिए प्रेरणा स्रोत बनना चाहते हैं, तो हमें सबसे पहले अपने जीवन स्रोत जल को आस्था पूर्वक बचाना होगा, क्योंकि इसी में हर आस्था जीवित और शुद्ध रह सकती है।

Friday, April 1, 2016

लोकतंत्र के स्तम्भ

          लोकतंत्र का जिन चार खंभों पर टिका होना माना गया है, उनमें से प्रथम दो, कार्यपालिका और विधायिका जिस गत को हासिल हो रहे हैं और बचाने की जिम्मेदारी जिस मतदाता वर्ग की है, वह इसे लेकर लापरवाह है। इसके चलते शेष दो खंभों से ही उम्मीदें रखी जा सकती हैं।
         न्यायपालिका और पत्रकारिता के इन दो खंभों में से पत्रकारिता या कहें कि मीडिया पर ईस्ट इंडिया कंपनी के देशज रूप कॉरपोरेट घराने बहुत चतुराई से न केवल काबिज होते जा रहे हैं, बल्कि पिछले अरसे में उसने मीडिया के बड़े हिस्से की साख को बट्टे-खाते डालना भी शुरू कर दिया है। ऐसे में बकरे की अम्मा बना बाकी मीडिया भी कब तक खैर मनाएगा, कह नहीं सकते। बचे एक न्यायपालिका रूपी खंभे को भी सामर्थ्यवान गिराने जरूर लगे हैं, लेकिन यह अब तक इतना मजबूत है कि ऐसे समय जब अवाम लोकतांत्रिक मूल्यों के प्रति लापरवाह है और शेष तीन खंभे जब तक अपनी असली स्थिति पर न लौट आएं, तब तक यही एक इन मूल्यों को संभाले रख सकता है।
        बावजूद इसके न्यायपालिका से संबंधित ऐसी खबरें आ जाती हैं, जिनसे भरोसा डिगने लगता है। दरअसल, न्यायपालिका जिस ओर से सचेष्ट नजर नहीं आती, इनमें न्याय की जरूरत है। लेटलतीफी में गवाहों पर क्या गुजरती है, उसे हर सामान्य जागरूक व्यक्ति समझता है। गवाहों का भावनात्मक भयादोहन, प्रलोभनों और धमकियों से उन्हें डिगाने की कोशिश होती है। प्रशासन भी ऐसे मामलों में आमतौर पर सक्रियता नहीं दिखाता और न्यायपालिका की सापेक्षता न्यायालय कक्ष के बाहर झांकती भी नहीं। ऐसे में आरोपी पक्ष की ओर से मुकदमे को लंबा खींचने की जुगत तब तक जारी रखी जाती है, जब तक या तो गवाह का कोई ताबीज न बन जाए या फिर फरियादी की उम्मीद न खत्म हो जाए।
        पिछले एक-दो वर्षों में गवाहों का इंतजाम जिस तरह किया जाने लगा है, वह विचलित करने वाला है। इसे दो मामलों से समझा जा सकता है। पहला, मध्यप्रदेश का व्यावसायिक परीक्षा मंडल यानी व्यापमं से संबंधित महाघोटाला और दूसरे धर्मगुरु बने प्रवचनकार आसाराम का।
        व्यापमं घोटाले में प्रभावशाली लोग दांव पर हैं। उन्होंने धन और अपने निकटजनों को धंधे में लगाने के वास्ते जो खुला खेल खेला, वह बेरोजगारों और विद्यार्थियों के लिए आजादी के बाद का सबसे निराशाजनक मामला है। इस घोटाले का खेल जब खुला तो उसमें सरकार में काबिजों का अपने और अपनों को बचाने के चक्कर में जिन-जिन लोगों के कारण फंसने की गुंजाइश बनी, वे सब संदिग्ध मौतों के हवाले होने लगे। इस पर मध्यप्रदेश के उच्च न्यायालय की निरपेक्षता, न्याय-व्यवस्था से भरोसा उठने की गुंजाइश बनी। वह तो कुछ लोग उच्चतम न्यायालय पहुंच गए और उसने हस्तक्षेप कर व्यापमं घोटाले को उजागर करने में लगे लोगों का भरोसा बढ़ाया है।
        ऐसा ही मामला किशोरी से दुष्कर्म सहित कई अन्य ऐसे ही आरोपों में फंसे आसाराम-नारायण, बाप-बेटे का है। इनके पास दोहरी ताकत है- धन की और भोले भक्तों की भीड़ की भी। ये लोग जेल से बाहर आने के लिए हर करतूत को आजमा रहे हैं। इस केस में कई गवाह मारे जा चुके हैं और कई मुकर चुके हैं। क्या न्यायपालिका ऐसी घटनाओं को रुकवाने में सक्रियता नहीं दिखा सकती? जो अदालतें ओमप्रकाश चौटाला, लालू प्रसाद यादव, कलमाड़ी, कनिमोड़ी, ए राजा आदि को सींखचों में रख सकती हैं, वे शासन-प्रशासन को भी पाबंद कर सकती हैं कि वह ऐसे गवाहों और मामला उठाने वालों को पर्याप्त सुरक्षा दे। ऐसे मामलों को निबटाने में खुद न्यायालय को भी तत्परता दिखानी चाहिए।