Saturday, January 14, 2017

आफ़ताब

घेर के रक्खो
जितना घेर सकते हो,
ये आफ़ताब है
निकल के ही रहेगा!

एक तूफान मन में,
दबा रक्खा है,
मचलने पे आएगा,
मचल के ही रहेगा !

लाख नरम कर लूँ
लहजा अपना,
जो आंच पे चढ़ा है वो
उबल के ही रहेगा !

शब्दभेदी लाख छुपो
अपने दरबे में तुम,
हर शब, चाँद छत पर
टहल के ही रहेगा!

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