घेर के रक्खो
जितना घेर सकते हो,
ये आफ़ताब है
निकल के ही रहेगा!
एक तूफान मन में,
दबा रक्खा है,
मचलने पे आएगा,
मचल के ही रहेगा !
लाख नरम कर लूँ
लहजा अपना,
जो आंच पे चढ़ा है वो
उबल के ही रहेगा !
शब्दभेदी लाख छुपो
अपने दरबे में तुम,
हर शब, चाँद छत पर
टहल के ही रहेगा!
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