शाम होते ही ,
आकाश का सूनापन
मेरे कमरे के
एक कोने में उतर आता है।
.
उसी कोने में जहां ,
घंटों मैं टकटकी लगाये ,
घूरता रहता हूँ
तुम्हें सोचते हुए !
.
पता है तुम्हें? इसी कोने
पार्क की वो बेंच देखता हूँ
जिस पर घंटों बैठे हम ,
बतियाते थे अनाप-सनाप !
.
इसी कोने में देखता हूँ
इकलौती गतिमान चीज ,
तुम्हारे कान की बालियां
जब ठहर जाती थी दुनियां !
.
और देखता हूँ कि जब ,
किवाड़ की ओट में
पत्थर बनी खड़ी थी तुम ,
मैं दुनियां छोड़ आया !
.
मेरे कमरे का यह कोना,
उलझन में डालता है !
समझ नहीं पाता इससे
मोहब्बत करूँ या नफरत !
............... - शब्दभेदी
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