घर की बालकनी
होती है, घर की
आँखों की तरह!
इन्हीं आँखों
से हम, सवेरे का
मनुहारी दृश्य देखते हैं
और देखते हैं
दोपहर की
आवाजाही, चहल-पहल!
सांझ को कभी
डूबते सूरज को
कहते हैं अलविदा
और रात में
इन्ही आँखों से
दिल में उतरता है चाँद!
लेकिन घर के
खाली पड़ जाने से
नीरस हो जाती है बालकनी!
ठीक वैसे ही जैसे
मन खाली होने से,
पथरा जाती हैं आँखे!
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शब्दभेदी
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