Friday, December 30, 2016

लव यू दिसम्बर


सुनो बे जालिम दिसम्बर ! तुम भी बुझते दिए की तरह खूब भभका मारे हो, स्साला तुम्हारे आते ही हजारों लप्रेक न्यूज फीड में भरभरा के आने लगे। तुम्हारी सर्द रातों ने खूब सारे पुरानी चोटों का दर्द उभार दिया ।
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बचपने से लेकर जवानी और फिर दर्द-ए-जुदाई से लेकर महखाने में डूबी शाम तक को तुम अपनी कोहरे की धुंध में साथ लिए उड़ते रहे । यादों का ऐसा पाला मारे हो न तुम कि आदमी अंगीठी-अलाव में घुस के बैठ जाए फिर भी ये ठिठुरन नहीं जाती।
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तुम ना... लियोनार्दो द विन्ची की मोनालिसा की तरह हो । मने आदमी तुमको जिस मूड़ में देखे वैसे ही दिख जाते हो ! आदमी खुस है तो तुम्हारी सुबह अलाव और अंगीठी की गर्माहट के साथ होती है और तुम्हारी दोपहर की गुनगुनी धूप शाम के अलाव जलने तक इस गर्माहट को कायम रखती है ।
और हमारी तरह मनहूस लोगों के लिए तो क्या जनवरी क्या दिसम्बर !
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तुम्ही ने सलमान को लांच करके हॉटनेस बढ़ा दी और तुम्ही ने दुनियां के सारे मनहुसों का हौसला अफ़जाई करने के लिए ग़ालिब को उतारा था। अपनी तरह के इकलौते हो बे तुम 'एकदम यूनिक' !
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सुन भाई अपनी तो फितरत है जाते हुए से दिल लगा लेने की.. प्यार हो गया तुमसे.. हर बार की तरह सच्चा वाला प्यार..! हर बार की तरह इजहार भी कर रहा हूँ खुल्लम-खुल्ला 'लव यू दिसम्बर' !
जाओ दोस्त तुम्हारे जाने पर आंसू नहीं बहाएंगे..! क्योंकि किसी अजीज ने कहा था कि ' जाते हुए को हस के विदा करना चाहिए ' ! मिस यू ब्रो 😘 💞

सूखा पेड़ और मैं

जैसे-जैसे रात गहरी होती जाती है, मेरे कमरे में सन्नाटा फैलता जाता है और बेसुध पड़े मेरे शरीर की सासें मुझे तूफान की सरसराहट सी सुनायी देने लगती है, दम घुटने लगता है तो मैं खुद को उठा कर इस भंवर से दूर फेंक देना चाहता हूँ... वहां जहाँ मुझे इस तूफान की सरसराहट भी न सुनायी दे।

बचा खुचा साहस जुटाकर बमुश्किल ही अपने पैरों पे खड़ा हो पाता हूं , लड़खड़ाते हुए किसी तरह किवाड़ की सांकल तक पहुँचता हूँ और किवाड़ खुलते ही सरपट भागता हूँ वहीं तालाब किनारे .... जहां एक सूखा पेड़ बिना शोर किये खड़ा है।

हालाँकि ये सूखा पेड़ मुझे मेरा आने वाला कल दिखाता है लेकिन मैं उसकी बीती हुयी घुटन को महसूस करता हूँ। आखिर क्यों उसने लपक के तालाब से पानी नहीं ले लिया जब वो सूख रहा था.. जबकि तालाब तो बिलकुल उसके पास था ! आखिर क्यों तालाब ने ही अपने किनारों से बगावत करके इसे सूखने से नहीं बचाया जबकि ये तालाब का सबसे प्यारा पेड़ था।

लम्बे अंतर्द्वंद के बाद भी मैं इन यक्ष प्रश्नों का जवाब नहीं ढूंढ पाता हूँ। लेकिन कयास लगाता हूँ , कि शायद इस सूखे पेड़ के पांव बधे हुए थे उसे तालाब तक जाने की मनाही थी। उसे लोगों ने तड़पते हुए सूख जाने दिया लेकिन तालाब तक ना जाने दिया। बिलकुल वैसे ही जैसे तुम्हारे इतना करीब होने के बावजूद मेरे पांव बधे हैं और मैं थोड़ा-थोड़ा तड़पकर रोज सूख रहा हूँ।

Monday, December 26, 2016

ये कैसा संशय है

ये कैसा संशय है ,
तुम हो या नहीं हो ?

अगर तुम हो तो तुम्हारे प्रेम की ,
सुखानुभूति क्यों नहीं है !
अगर तुम नहीं हो तो ,
क्यों नहीं हूँ इक पल भी बगैर तुम्हारे !

अगर तुम हो तो तुम्हारे होने का ,
मुझको गुमान क्यों नहीं है !
अगर तुम नहीं हो तो ,
क्यों ये उम्मीद है लौट आने की तुम्हारे !

अगर तुम हो तो मेरे पल-छिन,
क्यों बिखरे पड़े हैं अस्त-व्यस्त
अगर तुम नहीं हो तो ,
क्यों मेरा हर लम्हा सिमटा है तुममे!

अगर तुम हो तो मेरे दिन,
क्यों वीरान हैं किसी टापू से !
अगर तुम नहीं हो तो ,
क्यों मेरी रातें अब भी हैं आलिंगन में तुम्हारे !

अगर तुम हो तो मेरी कलम,
क्यों लिखती नहीं तुम्हारे श्रृंगार !
अगर तुम नहीं हो तो ,
क्यों मेरी कृतियों में है अब भी नाम तुम्हारा !

ये कैसा संशय है ,
तुम हो या नहीं हो ?

- शब्दभेदी

Saturday, December 17, 2016

सच्चा योद्धा

आज सुबह निकल पड़ा मैं
यादों के सफर में
खूब सारी धुंधली छवियां लिए
जो बहोत झकझोरने पर ही
समझ में आ रहीं थी...
एक धुंधली सी छवि बात कर रही थी मुझसे

उसने मुझे एक योद्धा से रूबरू करवाया,
जिसकी छवि भी बिलकुल धुंधली थी,
वो जो एक सन्तरी के तौर पर नियुक्त था
मैंने देखा वो योद्धा लड़ रहा था,
उन दुश्मनों से जो घुप्प अंधेरे से आ रहे थे,
मेरा वजूद मिटाने।

योद्धा भाव शून्य होकर लड़ रहा था
आस पास और भी बहुत लोग मूक खड़े थे
घावों से भरे होने के बावजूद
बिना रुके वो लड़े जा रहा था।

मेरा मन रो रहा था,
आँखे नम हो रही थी।
मैं महशूश कर रहा था,
उसके घावों से उभरते दर्द को..
नर्मदिल योद्धा दुआएं भी कर रहा था
दुआओं के एक-एक शब्द,
सफ्फाक चमक रहे थे
न ओझल होने वाली चमक लिए।

मैंने गुजारिश की..
'योद्धा की पहचान बता दो'
वो शख्स मेरी बातों को
नजरअंदाज करता रहा।
उसने मुझे एक और छवि दिखाई
जिसमें मैं योद्धा की
ऊँगली पकड़े खड़ा था।

उहापोह में बंधा हुआ मैं
भय से कांप रहा था
मैंने महशूश किया
योद्धा की दुआएं मुझे गोंद में
महफूज मुझे घर लिए जा रही थी
मैंने गुजारिश की ' कौन है ये योद्धा '
मैंने जब आँखे खोली तो.
बेतहासा मेरे आंशू निकल रहे थे
'अम्मां ' ये तुम थी..
...............................................

लेरी क्लार्क की कविता 'द वैरियर' का यह भावानुवाद मेरे जीवन की सच्ची योद्धा 'अम्माँ' तुमको समर्पित
तुम्हारे समर्पण, मेरे प्रति तुम्हारे विश्वास मुझे एहसास कराते हैं कि तुमसे बेहतर योद्धा मैंने अपने जीवन में नहीं देखा और ना ही देखूंगा..
मेरे लिए इस दुनिया में कहीं भी अगर ईश्वर शेष है तो तुम्हारे प्यार और तुम्हारी ममत्व में।

Tuesday, December 13, 2016

कयामत की रात

कयामत की रात होती है,
वो रात जब
खुदा हमारे कर्मों का हिसाब लगाता है
और नसीं करता है हमें,
जन्नत या दोज़ख!

तुम्हारे ब्याह वाली रात भी,
इससे कम नहीं थी
हिसाब लगा रहा था मैं,
पाने और खोने का ,
जन्नत या दोज़ख!

काफिर कहतें हैं मुझको,
मैं मानता नहीं खुदाई,
लेकिन हिसाब तो होगा
साथ और तन्हाई दोनों का
जन्नत या दोज़ख!

लगभग एक जैसा होता,
मेरे लिए तुमको पाना और खोना,
भरा पड़ा रहता मैं
तब प्यार अब गुबार,
जन्नत या दोज़ख!

अब समझ पाया हूं,
तुमको दोष देना भूल थी,
क्या फरक पड़ता है,
बावफ़ा हो या बेवफा,
जन्नत या दोजख !

- शब्दभेदी

Thursday, December 1, 2016

लोक-लाज

बिगड़े हो, इतने बर्बाद हुए बैठे हो
उम्र हुई, अब सुधर क्यों नही जाते।

हाथ खाली है तो क्या हुआ,
लौटकर सीधे घर क्यों नहीं जाते।

आईने से इतना मुंह चुराते हो,
रूह से थोड़े संवर क्यों नहीं जाते।

फोड़ते हो ठीकरा हालात पे काहें?
खुदको खोजने दरबदर क्यों नहीं जाते।

गांव से इतनी शिकायत है तुमको,
तो मुड़ के एक बार शहर क्यों नहीं जाते।

लोक-लाज धो कर पी गये हो,
बेशरम कहीं के, मर क्यों नहीं जाते।

शब्दभेदी जानते हो दुनिया गोल है,
बेवजह भागते हो, ठहर क्यों नहीं जाते।

नासमझ

ना मिलूं तुम्हे जश्न-ओ-बहार में शायद,
इन दिनों ग़म का खजाना ढूंढता हूँ।

अव्वल तो मैं बचता रहा नाजनीनो से मगर,
अब तो खुद से भी बचने का बहाना ढूंढता  हूँ।

कहां गए वो दिन, वो चैन-ओ-सुकूँ कहां गये,
भरे दिन, नामुकम्मल नीदों में ऊंघता हूँ।

मिल जाऊं कहीं तो मुझे भी इत्तेला करना,
इक अरसे से मैं खुद, खुद ही को ढूंढता हूँ।

शून्य में भी खोजते हो सम्भावनाएं नासमझ,
'शब्दभेदी' कौन होगा तुझ सा दीवाना ढूंढता हूँ।

Wednesday, November 23, 2016

उम्मीद की आखिरी बस


इश्क का मारा कहते हो तो कह लो मुझको,
हूँ आज आवारा, कल को सुधर जाऊं शायद।

यायावर हूँ, पता नही कब तक भटकूँगा,
उम्मीदों की आखिरी बस से घर को जाऊं शायद।

जानता हूँ भारी हैं, पर किस्तों में चुका दूँगा,
यादों के इस सूद ब्याज से भी उबर पाऊं शायद।

'शब्दभेदी' चकोर अभी उलझा है कुवें के आभासी चाँद में,
आफ़ताब कल निकलेगा तो मैं भी निकल आऊं शायद।

Saturday, November 19, 2016

बेजारी का अँधियारा

बेजारी का अँधियारा भी बढ़ता है इस कदर,
दिन के शफ्फाक उजाले में भी खुद को टटोलता फिरता हूँ।

कोशिशें लाख कर लूँ दिल की बात छुपाने की,
कमजर्फ हूँ , हर राज परत-दर-परत खोलता फिरता हूँ।

दस्तकें दे-देकर थक गया मैं अपने ही दरवाजे पर,
अंदर कोई नही है खुद ही अंदर से बोलता फिरता हूँ।

आह ज़िन्दगी से अहा ज़िन्दगी तक पहुँचा ये सफर,
'शब्दभेदी' मैं यूँ ही शब्दों में सबकुछ बोलता फिरता हूँ।

Monday, November 14, 2016

बावफ़ा

हंसू? हंसने की कोई वजह मगर तो हो,
दर्द हो, दर्द की दवा भी मुख्तसर तो हो!
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हूँ  खैरियत,  इससे इंकार  नहीं  मुझको,
मुश्किल-ए-हालात में थोड़ी कसर तो हो!
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है खुदा उसकी खुदाई पर कोई शक नहीं,
मेरी नहीं, उसकी ही दुआ में असर तो हो!
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कह तो दूँ मैं बावफ़ा तुझको बड़े शौक़ से,
मेरी भी वफ़ाओं का साथ मेरे हसर तो हो!
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'शब्दभेदी' कैसे कहें वजूद तेरा ज़िंदा है?
तू है कहां?  कैसा है? कुछ खबर तो हो!

Friday, November 11, 2016

मुन्तजिर

हां हूँ मैं मुन्तजिर
लेकिन
मुझे इंतजार नहीं तेरा।

उलझने लाख है
लेकिन
दिल बेकरार नहीं मेरा।

बेशक बेशकीमती है तू
लेकिन
मैं अब तलबगार नहीं तेरा।

सजा रक्खी हैं हसरतों की दुकानें
लेकिन
कोई खरीददार नहीं मेरा।

'शब्दभेदी' हुआ यूँ तो बहुतों का अजीज
लेकिन
कोई तरफदार नहीं मेरा ।

रतजगों का हस्र

रतजगों की जद में आयी न जाने कितनी रातें,
ये सोचते थे कि ज़िंदगी पड़ी है सोने को।
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लुटाते रहे अपना बहुत कुछ इसी नासमझी में,
फकीर हैं, हमारे पास है ही क्या खोने को।
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रत्ती-रत्ती जो अरसे तक होते रहे हमारे,
ज़िद उनकी भी थी, उनका हमे एकमुश्त होने को।
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शब्दभेदी बहुत कुछ है ज़िन्दगी में उसके सिवा,
उठो चलो अब आगे बढ़ो, वक्त कहां है रोने को।

Friday, November 4, 2016

मन के जीते जीत

मेरे जीवन के संघर्षों,
पल-छिन आओ, हर दिन आओ
सत बार तुम्हारा आवाहन है।

गांजते जाओ विपदाएं मुझपर
नहीं झुका हूँ, नहीं झुकूंगा
साहस मेरा न डिगाय मान है।

और ठोकरे देते जाओ,
अभी खड़ा हूँ, खड़ा रहूंगा
अभी तो मुझमें यौवन है।

कल वृद्ध अगर हो जाऊं तो क्या,
डटा रहा हूँ , डटा रहूंगा
अडिग रहना मेरा जीवन है।

'शब्दभेदी' मात मुझे देगा कौन!
विजयी रहा हूँ, विजयी रहूंगा
क्योंकि विजयी हमेशा मेरा मन है।

Monday, October 31, 2016

हसरतों की दुकान

एक रोज तंग आकर मैंने
हसरतों को बड़ी पोटली में बांधकर
बेचने चल दिया बाजार में
खोली पोटली, बैठा मैं अच्छा स्थान देखकर

लोग खूब इकट्ठा हुए
बाज़ार में नई दूकान देखकर
फिर तो खुसी का ठिकाना न रहा
फूला न समाया मैं हसरतों के तलबगार देखकर

यूँ तो औने पौने में बेचना था
भाव बढ़ा दिए मैंने इतने खरीदार देखकर
उलटे-पलटे, पर भाये न किसी को
मायूस था, हैरान था ये अलमजार देखकर

हसरतें कच्ची हैं, बेरंग हैं
आये गये सभी मेरा सामान देखकर
मुंह बिचकाए, आजमाए हर कोई
हुआ अचंभा, दंग रह गया मैं ये बाजार देखकर।

हो गयी शाम, बाजार बंद हो गयी
सब लौटने लगे अपना -अपना सामान बेचकर।
हसरतें तो बिकने से रही, बोझ और बढ़ गया
लौटा मैं मायूसियों की एक और पोटली बांधकर।

कोने में खड़ा फटेहाल, घूरे है सुबह से
उठते ही बुलाया उसने मुझे आवाज देकर।
हसरतें तेरी है इन्हें तू ही रख 'शब्दभेदी,
मैंने लगाई थी दुकान, हो गया मैं भी कंगाल बेचकर।

Sunday, October 30, 2016

जश्न-ए-चराग

वाई-फाई रूटर लगा है, 6जीबीपीएस इंटरनेट है। जो भी क्लिक करो फटाक से खुल जाता है। मतलब के दिवाली का भरपूर जश्न चल रहा है। कल शाम से ही शुभकामनाओं का लेनदेन चल रहा है, और देर रात तक ये सिलसिला चलता रहा।

सुबह देर से हुयी। फ्रेश-व्रेश हो के मोबाइल उठा लिया। दिवाली के जश्न में दो बजे गये। जब आँखे थक गयी तो बाकी चीजों पर भी ध्यान गया। इलाहाबाद जाने से पहले कुछ गंदगियां छोड़ गया था और कुछ गंदगियां ले कर भी आया था। अरे यार गंदे कपडों की बात कर रहा हूँ।

फिर क्या बाजीराव उठा, रूम के कोने-कोने में लगे मकड़ी के जालों को साफ किया , झाड़ू लगाया , किचन में दो दिनों से पड़े गंदे बर्तनों को साफ़ किया। लगभग पूरे कपड़े धुले फिर नहाया। अपनी चपलता से बाजीराव ने इसी बीच दाल चावल भी पका लिया। भोजन भी हो गया।

कल वापस लौटते वक्त बाजार से चार मोमबत्तियां लाया था। फ़्लैट के चारो कोने जला दिया। अब फिर मोबाइल ले कर बैठ गया हूँ। मोबाइल की स्क्रीन पर भी दिवाली एनिमेशन थीम लगा दिया। अब फिर से जुट गया हूँ। फेसबुक-व्हाट्सएप की जश्न-ए-चराग में।

Sunday, October 23, 2016

यादों का तूफाँ

जर्रे-जर्रे में उसका निशाँ जहां नहीं होता,
मेरे लिए वो मंजर दुनिया-जहाँ नहीं होता!

मैं जाऊं कहीं भी, रहता हूँ कहीं भी,
ये बेसबब यादों का तूफाँ कहाँ नही होता।

हो तन्हाई का सहरा या शहर-ए-इश्क़ हो,
सिर पे मेरे कभी कहीं आसमां नहीं होता।

ये गम-ए-उल्फत, ये गम-ए-आशिकी,
मोहब्बत में कुछ भी खामखां नही होता।

बेशक होगा लाख काबिल अपना 'शब्दभेदी'
इश्क का मारा किसी काम का नही होता।

Sunday, October 16, 2016

कैसे कहें ?

बुझते चराग को आफ़ताब, कैसे कहें?
हकीकत जो है उसे ख्वाब, कैसे कहें?
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गिला करते नहीं, शिकवा है नहीं तुमको
है हमसे इश्क बेहिसाब? कैसे कहें?
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ऐतबार, इकरार, बेइंतहां प्यार का सफर
मुकम्मल होंगे सारे ख्वाब, कैसे कहें?
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बहकते हैं कदम, लड़खड़ाती है जुबान
नशा करते नहीं जनाब , कैसे कहें?
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हो नेक दिल, भले इंसा हो 'शब्दभेदी'
मगर हो सबसे लाजवाब, कैसे कहें?

Thursday, October 13, 2016

कभी - कभी मैं सोचता हूँ

कभी - कभी मैं सोचता हूँ
मैं दौड़ रहा हूँ,
किसी रेस में दौड़ते
घोड़े की तरह।
या फिर...
दौड़ रहा हूँ,
पटरियों पर दौड़ती
रेलगाड़ियों की तरह।

कभी - कभी मैं सोचता हूँ
मैं ठहरा हुआ हूँ,
शहर की भगदड़ निहारते
किसी बस अड्डे की तरह।
या फिर...
ठहरा हुआ हूँ,
अरसे से ठहरे,
नुक्कड़ के बरगद की तरह।

कभी - कभी मैं सोचता हूँ
मैं उलझा हुआ हूँ,
चाल दर चाल उलझते,
शतरंज के मोहरों की तरह।
या फिर...
उलझा हुआ हूँ,
कई दिनों से उलझे पड़े
ऊन के गोले की तरह।

कभी - कभी मैं सोचता हूँ
मैं झूम रहा हूँ,
चैत की गर्म हवाओं में झूमती
गेहूं की बालियों की तरह।
या फिर...
झूम रहा हूँ,
बैलों के गले में झूमती
घण्टियों की तरह।

कभी - कभी मैं सोचता हूँ
मैं तप रहा हूँ,
दोपहर की तेज धूप में तपती
मिट्टी की सड़कों की तरह।
या फिर...
तप रहा हूँ,
लोहार की भट्ठी में तपते
लोहे की तरह।

कभी - कभी मैं सोचता हूँ
मैं सर्द पड़ा हूँ,
बारिसों में भीगे खड़े
किसी खम्भे की तरह।
या फिर...
सर्द पड़ा हूँ,
किसी पार्क की सर्द पड़े
लोहे की बेंच की तरह।

कभी - कभी मैं सोचता हूँ...!

- रजनीश 'शब्दभेदी'

सितारों के आगे

लिखना है तो लिख डालो सोचते क्या हो,
ख्वाहिशें हैं, कोई विवादित बयान थोड़ी है।

खरचो जितना खरच सको खुद को
ज़िन्दगी है, कोई बनिये कि दुकान थोड़ी है।

बहकाते है सब, तुम भी बहक जाते हो,
सितारों के आगे कोई जहान थोड़ी है।

'शब्दभेदी' अपने हिस्से का अपने आप से बनालो,
इस पउवे के शहर में तुम्हारी पहचान थोड़ी है।

मन की बस्ती

      मैं खुद को खुद ही में दस - बीस मानता हूँ । अक्सर खुद ही से किसी ना किसी बात पे लड़ता हूँ, झगड़ता हूँ ,समझाता हूँ फिर कभी किसी बात पे खुद ही का मजाक उडाता हूँ फिर खुद ही खुद पे गुस्सा हुआ करता हूँ और फिर खुद को शांत भी कराता हूँ।
      लेकिन जब खुद के अलावा किसी और से मिलता हूँ तो बड़ा सहज हो जाता हूँ जैसे किसी बस्ती के दिन्नु, टिंकू , रॉकी, राजन आपस में कितना भी लड़ता - झगड़ता हो, चुहलबाजी करता हो लेकिन बस्ती में किसी नये को देखते ही सब इकट्ठे उस अजनबी के सामने खड़े हो जातें हैं वैसे ही जैसे सबके चेहरे पर एक ही भाव होता है ठीक वैसे ही किसी से मिलते ही अपने भीतर के सारे करेक्टर्स को इकट्ठा करके मिलता हूँ ।
       तो जैसे बस्ती का कोई दिन्नुआ अजनबी को बड़ी इज्जत देता है उसे साहब कहके बुलाता है और कोई रॉकी उसके सामने अपनी हीरोपंती झाड़ता है जैसे कोई रिंकू राजन और दिन्नु सब मिलकर के रॉकी को समझाते हैं कि बे तुझे अजनबी से ऐसे नहीं बोलना चाहिए था बढ़िया आदमी लगता था वो। ठीक वैसा ही अपन से भी ऊँच-नीच हो जाता है बाद में अपन भी अपने अंदर का रॉकी को समझाता कि भाई हमेशा हीरोपंती मत झाड़ा कर।
     लेकिन कोई-कोई साहब लोग रॉकी को इग्नोर करता है और दिन्नु, टिंकू और राजन के साथ आगे बढ़ता है और कोई साहब उस टुच्चे रॉकी की बात को दिल पे ले लेता है और बस्ती में आना छोड़ देता है।

ग्लोबल गुमटी

        हमारे गाँव या कस्बे जब जगतें है , तो सड़क किनारे की चाय की गुमटियाँ भी ‪कुल्हड़‬ के साथ जग जाती हैं। चाय की हरेक चुस्की अपने आप मे तब सार्थक साबित होने लगती है जब बांस फल्ली की बनी बेंच पे बइठे-बइठे कुल्हड़ खाली करने तक आपको पुरे गाँव की खबर मिल जाती है । किशोर चचा की गईया बछड़ा बियाई है, अधार दादा का लड़कवा पीसीएस में सेलेक्ट हो गया है, दिन्नुआ की शादी तय हो गयी, सावन का आज सातवा दिन है, इस साल मलमास बढेगा, पांचक लगने वाला है और भी बहुत कुछ आसपास के चार गाँव की खबर चंद चुस्कियों में मिल जाती है ।
       दरअसल ये गुमटियां हमारे गांव और कस्बे की संस्कृति का अहम हिस्सा हुआ करती हैं। बचपन में दादा की बीड़ी और बाबू जी का पान लेने जाने से लेकर जवानी में चाय की बैठकी तक कहीं न कहीं हम सब इन गुमटियों से जुड़े होते हैं।
      अब बेबुनियादी जरूरतों को पूरा करने में, ज़िन्दगी की इस आपाधापी में बहुत कुछ पीछे छूट रहा है इसी जद में गुमटियां भी आ गयी, और छूट गयी वो बेफिक्री की चुस्कियां और बैठकी।
       एक महीने से दिल्ली में हूँ यहां भी बहुत सारी गुमटियां हैं , और कम से कम इतने लोगों को तो जानता हूँ कि गाहे-बगाहे बैठकी लगायी जा सके। लेकिन अपनी - अपनी व्यस्तताओं में सभी व्यस्त हैं और मैं भी। तो अक्सर अकेले चाय पीते हुए गुनगुना लेता हूँ ' दिल ढूंढता है फिर वही फुरसत के रात दिन'।
       मैंने मान लिया था कि ज़िन्दगी की वो रवानगी अब जाने को है । लेकिन इत्तेफाकन आज ऐसे एक कार्यक्रम में जाना हुआ जहां अपने जैसे ही कुछ लोगों से मुलाकात हुई जो गुमटियों की बैठक व बेफिक्री की कमी अपने जीवन में महसूस करते हैं और इस बात को लेकर बहुत संजीदा भी हैं। उन लोगों ने इस खो रही संस्कृति को बचाने की एक मुहीम 'ग्लोबल गुमटी' की शुरुआत की है जो कि देश दुनिया के किसी भी कोने में रहकर आपको उस याद से जोड़े रखेगी जिसके छूटने का आपको अफ़सोस है।
     यह एक वेब पत्रिका है जिसे युवा साहित्यकार पुरष्कार से नवाजित, माटी से जुड़े लेखक निलोत्पल मृणाल और उनके साथियों ने शुरू किया है। खास बात यह है कि हम आप कोई भी इस मंच पर अपने विचार रख सकता है। फ़ेसबुक पर इस मंच के उदघाटन का इवेंट देखा तो सोचा आज रविवार है, दफ्तर की छुट्टी भी है, हो आता हूँ। लेकिन उम्मीद से बेहतर दिन रहा।
       नीलोत्पल भैया आपको और आपकी पूरी टीम को बहुत - बहुत धन्यवाद उस संस्कृति को जीवित रखने का प्रयास करने के लिए। ढेर सारी बधाईयां और शुभकामनाएं भी। अपने स्तर पर मेरा भी प्रतिभाग रहेगा इस मुहीम में जैसा कि नीलोत्पल भैया से बात हुई है। इस गुमटी पर अब तो आना जाना लगा ही रहेगा।

Tuesday, September 27, 2016

दिल बनाम दिमाग

कल देर रात तक मेरे दो परम मित्र अमितेश और अनंत के साथ, हमारे जीवन में दिल और दिमाग की भूमिका पर बहस चली। बहस का सार सुनने से पहले एक रोचक वाकया सुनिये...
     पिछले विधानसभा चुनाव के ठीक पहले हमारे क्षेत्र के एक प्रतिष्ठित नेता जी जो की कई सालों से बसपा में थे, तात्कालिक लाभ को देखते हुए दल बदल कर सपा में आये थे। पहली बार सपा के मंच पर बोलते हुए उन्होंने बखूबी अपने दिमाग का प्रयोग किया। बसपा सुप्रीमो की तानाशाही की उलाहना से लेकर समाजवाद और लोहिया जी के विचारों से प्रेरित होकर दल बदलने के पूरे सफर को उन्होंने तर्क के साथ जनता के सामने रक्खा, और खूब तालियां और सहानभूति बटोरी।
       जनता जनार्दन का इतना समर्थन देख कर गदगद हुए नेता जी के दिमाग ने भाषण के अंत में अपनी पकड़ ढीली कर दिया और सब कुछ दिल के पाले में छोड़ दिया। नेता जी ने जोश में आकर फ्लो-फ्लो में सपा के मंच से जय भीम जय भारत का नारा लगा दिया। नेता जी का दिल था कि अभी तक बसपाई था।
     आनन-फानन में टुचपुचिये नेताओं ने माइक सम्हाला और समाजवाद, लोहिया और मुलायम का जैकारा लगाकर माहौल सुधारने की कोशिश की। लेकिन ये जो पब्लिक है सब जानती है, सब गलत सही पहचानती है। बचा-खुचा काम मिडिया ने अगले दिन अखबारों को दिल की बातों से पाट दिया। दिल की बात जनता दिल पर ले बैठी और चुनाव में सपा का तगड़ा माहौल होने के बावजूद नेताजी को करारी हार का सामना करना पड़ा। धोबी का कुत्ता बने नेता जी अबकी बार निर्दलीय लड़ेंगे।
   खैर इस लघु कथा का मोरल यह था की दिल और दिमाग का सही सन्तुलन ही इंसान को संसार में बेहतर जीवन जीने के लायक बनाता है।
अब हमारी कल रात की बहस पर आता हूँ मित्र अमितेश ने फेसबुक पर स्टेटस अपडेट किया कि हमेशा दिल की सुनने वाला व्यक्ति खुस रहता है, इसलिए ज़िन्दगी के निर्णय दिल से करने चाहिये। मित्र अनन्त ने बात का समर्थन करते हुए लिखा दिमाग सारी बेवफाई का जनक होता है। अब मेरी नजर पड़ी तो मैंने सन्तुलित जवाब देने कि कोशिश किया और कहा कि अकेले दिल की सुनने से कुछ न हो पायेगा और दिल-दिमाग का अगर बेहतर संतुलन बना पाए तब ज़िन्दगी बेशक खूबसूरत हो जायेगी।
       अब मेरे संवेदनशील भाइयों ने दिल की वकालत करते हुए दलीलें पेश करना शुरू कर दिया। अब हालांकि नेता जी की तरह मैं भी दिल का मारा हूँ तो मुझे दिल का विरोधी मानकर मेरे तर्क को दिमाग के पक्ष में माना गया।  लेकिन सच ये है कि जब दिल मुझे ज़िन्दगी के मजे दे रहा था तब भी मैं यही मानता था कि दोनों का संतुलन होना चाहिए।  तो बहस का निष्कर्ष निकला कि तीन नए मुल्ले मिल कर बाग़ दे रहे है।
       अक्सर हम देखते हैं कि जो लोग बहुत समझदार होते हैं , संवेदनशील नहीं होते , क्योंकि वे विचार शक्ति पर ही इतने केंद्रित रहते हैं कि समझदार व तर्कशील बनने में ही लगे रहते हैं और वो जो इतने संवेदनशील होते हैं कि जरा सा कुछ होने पर ही उनकी आँखों में आँसू आ जाते हैं , वे ज्यादा समझदार नहीं होते। और जब हम बुद्धि और भावनाओं दोनों में संतुलित इंसान को पाते हैं तो उसके व्यक्तित्व के कायल हो जाते हैं। बुद्धि का अपना विशेष स्थान है और भावनाओं का भी ।

तोहफा-ए-आशिकी

हंसते थे हंसाते थे जो बेसुध पड़े हैं,
तुमने बेचारों की सोहबत बिगाड़ दिया है।

दोज़ख में जाओगे हम कहे देते हैं,
इश्क तुमने मासूमों को बर्बाद किया है।

घर के ज़िम्मेदार अब आवारा फिरते हैं,
तोहफा-ए-आशिकी जो तूने यार दिया है।

'शब्दभेदी' लगाओ बेड़ियां चढाओ फाँसी इश्क को,
इसने दबी-दबी सी आग को हवा दिया है।

Saturday, September 24, 2016

पुरखों की याद में

कई दफे फोन लगाने के बाद जब अम्मा ने फोन रिसीव किया तो मैंने नाराज होते हुए पूछा 'कहां हो ?? कबसे फोन कर रहा हूँ न मैं?'
'बेटा तुम्हारी माई (दादी जी) को खीर खिला रही थी।पितरपक्ख (पितृपक्ष) है ना' अम्मा बोली।
जवाब सुनके पहले तो मैं खूब हसा फिर पूछा 'किस फ्लाइट से गयी थी माई के पास?'
हंसते हुए बोली 'ऐसे नही कहते बेटा, पहले उनको अगियार (श्रद्धांजलि) देते हुए खीर चढ़ाया फिर गाय को खिला दिया और हम सबने भी खाया तुम होते तो तुम भी खाने को पा जाते माई का प्रसाद।'
मेरी हसी रुक ही नहीं रही थी। किसी तरह बात खतम करके फोन रक्खा और सोचने लगा तो हसी के ठहाके एक गहरी याद में डूबने लगे।
        बाबू जी को गुजरे हुए छः साल हुए थे, उनके जाने के बाद से माई गुमसुम सी रहने लगी थी। हम लोगों को कभी बहुत खुश देखती तो हल्की सी मुस्कान उनके चेहरे पर भी आ जाती, फिर कुछ ही देर में वे अपनी उसी दुनिया में खो जाती। बड़ी दीदी की शादी अपनी आँखों से देख लेना, उनकी आखिरी इच्छा थी। लेकिन जैसे बाबू जी ने कहा हो मेरे बगैर तुम अकेले यहां क्या करोगी यहीं आ जाओ दोनों एक साथ देखेंगे अपनी बड़ी नतिनी की शादी। आखिरी समय में तो वे बिलकुल भी ठीक नहीं थी, कभी-कभी हम लोगों को पहचानने से इंकार कर देती थी।
       मुझे अच्छी तरह याद है , जब पापा दीदी की शादी के सिलसिले  में इधर-उधर परेशान थे, सूरत से मुंबई तक रिस्तेदारों की चौखट नाप रहे थे। उसी समय माई की तबियत भी खराब रहने लगी। पापा को घर आना पड़ा। पापा माई को हमेशा खुश रखने की कोशिश करते, उन्हें लगता था उनकी नासाज तबियत का कारण उनकी उदासी है। जहाँ तक मेरा खयाल है माई को किसी भी बात में रूचि नहीं रह गयी थी। मैं माई का लाडला था, और शायद उनके सबसे करीब भी। मुझसे उनकी हालत बिलकुल देखी नही जाती थी। इंसान अजनबी हो तो कोई बात नही होती लेकिन रवैया अजनबी हो तो बहुत दुःख होता है। कभी-कभी मुझे अपने पास बुलाकर बिना सर-पैर की बातें करने लगती। डॉक्टर्स भी कह चुके थे, अंतिम समय चल रहा है और इनकी दिमागी हालात सही नहीं है। मगर मुझे ऐसा लगता था जैसे वो सब-कुछ जानबूझ के करती हैं।
       मेरा बोर्ड एग्जाम नजदीक था, मैं देर रात तक लालटेन के आगे बैठ कर पढ़ा करता था। माई रातों को अक्सर उठ कर टहलने लगती थी। पापा ने रात में उन पर नजर रखने की जिम्मेदारी मुझे दे रक्खी थी। एक रात, करीब एक बजे मैं मेज पर कुहनी टिकाये पढ़ रहा था। मेरी पीठ माई की खटिया की तरफ थी। मुझे पता भी नहीं चला कब माई उठकर पेरे पास आकर खड़ी हुई। रात के उजियारे में सामने दिवार पर परछाई दिखी तो अचानक मैं पीछे मुड़ा। बीमार रहने की वजह से धंसी हुई आँखे , खुले बाल और टूटे दांतों के बीच एक दो दांत। मैं डर से चिल्लाने ही वाला था कि कहतीं हैं ' सोइ जा बचवा, लालटेन के आगे काहे आँख फोरत था ' पहले सोचा पापा को जगाऊँ, फिर खयाल आया क्यों ना माई से कुछ देर बात ही करूँ, जाने कितने दिनों बाद तो उन्होंने मुझे बचवा कहके बुलाया था।
       'माई तबियत कइसे बा' मैंने पूछा। बेमन की मुस्कान के  साथ उन्होंने करवट बदल ली, और मैंने मुड़ के उनके चेहरे को देखा तो आंसू की एक गरम बूँद गाल पर ढलक रही थी। जैसे वो बहुत कुछ कहना चाहती हो, मगर कह नहीं पा रही हों। एक अंतर्द्वंद उनके चेहरे पर साफ झलक रहा था, शायद वे कष्टदायी शरीर से मुक्ति भी पाना चाहती थी और हमें छोड़ के जाना भी नहीं चाहती थी।
       माई... माई रे..  काफी देर तक मैं उन्हें बुलाता रहा मगर उन्होंने चुप्पी नहीं तोड़ी। मैं हारकर उठा और अपने बिस्तर पर आ बैठा। थोड़ा नादान था इसलिए गुस्सा आया कि माई मुझसे कुछ बोल क्यों नही रही है। मैं लालटेन बुझाकर सोने की कोशिश करने लगा। लेकिन उलझन  भरी रातों में नीद कहां आती है। अंजोरिया रात फैली हुई थी। मेरे गले में जैसे कुछ अटका हो, दिल में एक अजीब सा दर्द हो रहा था। दिमाग को शून्य की तरफ के जाने की कोशिश में मैं आसमान को निहारने लगा। एक बार मुझे लगा कि माई ने करवट बदली और मुझे देख रही हैं। लेकिन मैंने नाराजगी दिखाते हुए उन्हें नजरअंदाज किया और चादर में मुंह छिपा लिया। काफी देर तक वो मुझे उसी तरह आशा भरी नजरों से देखती रहीं। मुझे कब नींद आयी मुझे पता भी नहीं चला।
       सुबह शोर-शराबे से नींद खुली। लोग रो रहे थे। मेरे सिरहाने कुछ ही दूर पर माई को जमीन पर लिटाया गया था। उन्हें सफेद कपड़ा ओढ़ाया गया था। नाक और कान में रूई डाली गई थी। अम्मा माई को पकड़ के जोर-जोर से रो रही थी। घर और पास-पड़ोस की औरतें भी आस-पास बैठी थी। दुआर पर गाँव के कुछ लोग खड़े थे। पापा घर की एक छुही पर टेक लिए मायूस बैठे थे। अचानक मैं धक्क सा रह गया । मेरे दिमाग ने गवाह दिया कि माई चली गयी। माई का निहारता हुआ चेहरा मेरी आँखों के सामने नाचने लगा। मन हुआ कि रात ही की तरह फिर से अपना मुंह चादर में ढक लूँ। इतना अफ़सोस आजतक मुझे अपनी किसी गलती पर नहीं हुआ, जितना उस समय हो रहा था। रात को शायद माई मुझसे फिर से बात करना चाहती थी मगर मेरी नादानी ने मुझे आखिरी समय में उनसे दूर कर दिया था। आज भी उस दिन को याद करके खुद को दोषी सा महसूस करने लगता हूँ।